क्या हम विभाजन के लिए कांग्रेस को दोषी ठहरा सकते हैं?

कांग्रेस द्वारा मजबूरी में स्वीकार किया गया देश का विभाजन, निश्चित रूप से एक दुखद त्रासदी था, लेकिन क्या इसका अकेला विकल्प बेहतर होता? या फिर भारतीय उपमहाद्वीप में कई छोटे देशों के बनने का रास्ता खोल देता?

इसके अलावा, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मुस्लिम लीग के साथ हाथ मिलाकर, और भारत छोड़ो आंदोलन का बहिष्कार करके, सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा भी मुस्लिम लीग की तरह ही सांप्रदायिकता में वृद्धि, और मुस्लिम लीग के प्रभाव में वृद्धि के लिए  बराबर दोषी था. 

1947 के पहले का घटनाक्रम

विभाजन के कहीं पहले, ये समझने की ज़रूरत है की आखिर ऐसे हालात पैदा क्यों और कैसे हुए, की विभाजन को रोकना मुश्किल हो गया.

  1. कांग्रेस ने  1937 के आयोजित चुनावों में असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन किया था। उन प्रांतों में जहां मुसलमानों का बहुमत था, में से मुस्लिम सीटों पर भी मुस्लिम लीग बहुमत जीतने में असफल रहे। कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने फ्रंटियर प्रान्त में भी सरकार का गठन किया, जहां लगभग सभी निवासी मुस्लिम थे, इसके बावजूद मुस्लिम लीग यहां कोई सीट पर जीत हासिल करने में असफल रही। कुल मिलाकर, मुस्लिम लीग कुल 1585 में से केवल 106 सीटें जीती।
  2. ये कहा जाता है कि कांग्रेस ने भी विजेता के तौर पर काफी ज्यादा घमण्ड दिखाया, और सरकार में मुस्लिम लीग को गठबंधन में समायोजित करने से मना कर दिया। कई लेखकों के अनुसार, इसके परिणामस्वरूप शायद मुस्लिम लीग के नेतृत्व के अंदर काफी असंतोष पैदा हुआ, और विभाजन के लिए समर्थन को बढ़ावा मिला, विशेष रूप से मोहम्मद अली  जिन्ना में। जिन्ना पर अपनी पुस्तक में जसवंत सिंह के अनुसार,

“जिन्ना पर 1937 की घटनाओं के एक जबरदस्त, लगभग एक दर्दनाक, प्रभाव पड़ा”

  1. यह एक दिलचस्प बाद है कि 1937 के बाद ही जिन्ना पर कवि इकबाल का एक बहुत गहरा प्रभाव दिखना शुरू हुआ था, इकबाल 1930 से ही पाकिस्तान और दो राष्ट्र सिद्धांत की बात कर रहे थे।
  2. 1937 के चुनाव परिणामों से नोट करने लायक महत्वपूर्ण बात यह है कि उस समय तक, अभी भी मुसलमानों के बीच कांग्रेस को लोकप्रिय समर्थन हासिल था। मुस्लिम लीग नेतृत्व के लिए उनकी मांगों और विचारों को वास्तविकता में बदलने और पूरा करने के लिए उनके पास पर्याप्त राजनीतिक प्रभाव नहीं था।
  3. मुस्लिम लीग नेतृत्व के लिए आवश्यक था की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर्याप्त रूप से  बढ़े, अधिक संख्या में मुसलमान उनके साथ आएं, और उनकी विचारधारा का समर्थन करने लगें। उनकी मूल विचारधारा थी, दो राष्ट्र सिद्धांत – यह विचार कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग लोग हैं, और एक साथ नहीं रह सकते हैं। (उर्दू में इसे दो कौमी नज़रिया, और अंग्रेजी में इसे टू नेशन थ्योरी कहा जाता है)
  4. यदि उस समय भारतीय समाज ने सांप्रदायिक सौहार्द दिखाया होता, हिंदू और मुसलमान एक साथ रहते, तो यह दो राष्ट्र सिद्धांत कभी जड़ नहीं पकड़ पाया होता। इसके लिए बहुमत हिन्दुओं के नेताओं से कुछ सहिष्णु और जिम्मेदार व्यवहार दिखाए जाने की ज़रूरत थी, अल्पसंख्यकों के बीच आत्मविश्वास और सुरक्षा प्रेरित करने के लिए ।
  5. पर इसके विपरीत, हिंदू महासभा के सावरकर की तरह ‘चरमपंथी’ नेता खुद ही  दो राष्ट्र सिद्धांत ” के बारे में बात कर रहे थे, और कई बहुत ही सांप्रदायिक भाषण दे रहे थे। इस अवधि के दौरान हिंदू राइट विंग के चरमपंथी, और स्वयं कांग्रेस के कुछ नेताओं के जहरीले और सांप्रदायिक व्यवहार ने, मुसलमानों में चिंताओं को जन्म दिया, जिनका की मुस्लिम लीग द्वारा भरपूर फायदा उठाया गया।
  6. सितंबर 1939 में भारतीय प्रतिनिधियों  के परामर्श के बिना, ब्रिटिश वाइसराय द्वारा भारत को  विश्व युद्ध में झोंक दिए जाने विरोध में कांग्रेस ने सरकार से इस्तीफा दे दिया।
  7. हिन्दू महासभा  को अपनी शक्ति और प्रभाव बढ़ाने के लिए अवसर मिल गया। उन्होंने   मुस्लिम लीग के साथ बंगाल, एनडब्ल्यूएफपी और सिंध के प्रांतों में गठबंधन मंत्रालयों  को बनाने का निर्णय लिया (मुस्लिम लग भी भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ थी)।
  8. मुझे ये तो नहीं समझ में आया की तथाकथिक “कूटनीतिक जीनियस” सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा को इस अवसरवादी गठजोड़ से क्या हासिल हुआ, लेकिन मुस्लिम लीग के लिए, इसने निश्चित रूप से उन्हें वैधता,सत्ता और अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए एक सुनहरा अवसर प्रदान किया।
  9. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के बाद, कांग्रेस का ज्यादातर नेतृत्व जेलों में था। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा, दोनों ने  ब्रिटिश युद्ध प्रयासों के साथ सहयोग किया था, भारत छोड़ो आंदोलन का बहिष्कार किया, और उनके नेता बाहर थे, स्वतंत्र रूप से सांप्रदायिक भावनाओं को भड़का कर अपने आधार का विस्तार करते रहे।
  10. मार्च 1943 में, सिंध सरकार अविभाजित भारत की पहली प्रांतीय विधानसभा बनी जिसने पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया। भारत के किसी भी राजनीतिक विभाजन करने के लिए हिंदू महासभा के घोषित सार्वजनिक विरोध के बावजूद, सिंध सरकार में शामिल महासभा मंत्रियों में से किसी ने इसके विरोध में इस्तीफा भी नहीं दिया था
  11. 1946 के चुनाव में मुस्लिम लीग ने बंगाल, पंजाब और सिंध के मुस्लिम बहुल प्रांतों में बहुमत प्राप्त किया, और अपनी स्थिति में काफी सुधार कर डाला, कांग्रेस के 923 सीटों के मुकाबले में 425 पर जीत पाई ।
  12. यह सभी  सांप्रदायिक दलों के लिए एक आम रणनीति होती है – जब भी दंगे होते हैं,उनकी लोकप्रियता बढ़ जाती है ।
  13. 1946, मुस्लिम लीग के नेताओं के द्वारा जानबूझकर बंगाल में कलकत्ता से नोआखली तक दंगे शुरू किये गए थे, हिन्दूओं द्वारा बदले की कार्यवाई को भड़काने के इरादे से, और पूरे भारत में ध्रुवीकरण बढ़ाने के लिए, ताकिमुसलमानों की एक बड़ी संख्या कांग्रेस का समर्थन करना छोड़ दे, और मुस्लिम लीग के लिए वोट करने के लिए मजबूर हो जाए।
  14. तार्किक रूप से सोचा जाए, तो केवल एक गांधीवादी प्रतिक्रिया से ही  मुस्लिम लीग नेतृत्व की इस रणनीति का बखूबी मुकाबला किया जा सकता था। खून का बदला खून से  जैसी जोशीली प्रतिक्रिया वास्तव में वही थी, जो की मुस्लिम लीग के नेता चाहते थे, ताकि नफरत और फैले, और उनका प्रभाव बढे। एक बुद्धिमान व्यक्ति वह कभी नहीं करता है जो उसके दुश्मन उससे करवाना चाहते हैं ।
  15.  एक छोटी सी अवधि में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में बहुत तेजी से वृद्धि हो गयी। इस पागलपन को रोकने के लिए, गांधीजी ने अपनी तरफ से बहुत कोशिश की लेकिन उनके जैसे एक महान और प्रभावशाली नेता को भी बंगाल में हत्याओं को रोकने में कई महीने लगाने पड़े। 1
  16. जब एक बार मुस्लिम लीग इतनी सीटें जीत कर मुस्लिमों के प्रतिनिधी के तौर पर उभरी, तो विभाजन का इकलौता विकल्प, जो कांग्रेस के सामने रह गया था, वह था साथ कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार कर लेना।इसके तहत एक बहुत कमजोर केंद्र सरकार के साथ एक ढीला महासंघ की परिकल्पना की गई थी।

कैबिनेट मिशन योजना

कैबिनेट मिशन योजना के मुख्य बिंदू थे:

  • भारत का एक संघ ब्रिटिश भारत और भारतीय राज्यों के विदेशी मामले, रक्षा और संचार के मुद्दों को देखेगा। संघ में  कार्यपालिका और एक विधायिका होगी ।
  • बाकी सभी शक्तियाँ प्रांतों के पास रहेंगीं ।
  • सभी प्रांतों को तीन वर्गों में विभाजित किया जाएगा। पहले आम चुनाव के बाद प्रांत किसी भी समूह से बाहर निकल सकते हैं  ।

अधिक संभावना है की इस प्लान पर यदि हम चले होते, तो अब तक भारतीय उपमहाद्वीप कई देशों में बँट गया होता। इसकी तुलना में, विभाजन यकीनन एक बेहतर विकल्प था।

संदर्भ

  1. 1946 में अखंड भारत के लिए एक योजना – और भारत के संस्थापक पिता इसे अस्वीकार कर दिया
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One comment

  • ८ अगस्त १९४२ को असहयोग आंदोलन में कांग्रेस के सारे शी्र्ष नेता जेलों में ठूँस दिए गए थे तब श्यामा प्रसाद मुक्रजी फ़ज़लूल हक़ की सरकार में उप-मुख्य मंत्री न वित्त मंत्री का सता सुख भोग रहे थे व आज़ादी की लड़ाई मेंअंग्रेजों का साथ दे रहे थे । श्यामा प्रसाद जी संविधान सभा में काश्मीर के मामलों का समर्थन कर रहे थे व नेहरू कैबिनैट में मंत्री बन कर सत्ता सुख ले रहे थे । १३ मार्च १९४३ में सिंध सरकार के मुख्य मंत्री ग़ुलाम हुसैन हिदायतुल्ला व हिंदू महासभा के तीन मंत्रीयों ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया था ।मुस्लीम लीग के औरंगज़ेब जो कि नोर्थ ईस्ट सरकार के मुख्य मंत्री थे इसकी सरकार में भी हिंदू महासभा के मेहरचंद खन्ना मंत्री थे ,सावरकर की दो नेशन थ्योरी के बावजूद भी बदनामी नेहरू व गांधी के सिर पर ।यानि मुस्लिम लीग के साथ सरकार में हिंदुमहा सभा का सहयोग,अंग्रेज़ों का साथ देने वालों की अक्रामकता अब भारत का भाग्य बन गया है ।

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