हिंदुत्व और संघ परिवार

सावरकर की हिंदुत्व की विचारधारा क्या है? राष्ट्रीयता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरु के विचार क्या है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सावरकर के साथ गोडसे का क्या सम्बन्ध था? संघ परिवार और उनके वैचारिक भाई हिंदू महासभा का इतिहास क्या है?

कहा जाता है कि 1906 में उत्तरी लंदन में भारतीय छात्रों के लिए एक अस्थायी आवास में, मोहनदास करमचंद गांधी नामक एक जवान वकील,  कानून के एक छात्र विनायक दामोदर सावरकर, जो उस समय झींगे तल रहे थे, से मिले। सावरकर ने गांधी को अपने भोजन में से कुछ खाने की पेशकश की; मगर शाकाहारी गांधी ने इनकार कर दिया। सावरकर ने कथित तौर पर प्रतिवाद किया कि केवल एक मूर्ख ही पशु प्रोटीन से मजबूत हुये बिना ब्रिटिश का विरोध करने के लिए प्रयास करेगा।

तथाकथित तौर पर, इन दो युवा भारतीय राष्ट्रवादियों के बीच शत्रुता इसी मुलाकात से शुरू हुई थी; चाहे ये कहानी मनगढ़ंत है या नहीं, इनके बीच घृणा के पीछे असली कारण थे। इन दोनो का ब्रिटेन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए बहुत अलग दृष्टिकोण था। गांधी, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के नेता बने, मुसलमानों और ईसाइयों की दिशा में एक समावेशी दृष्टिकोण रखने वााले एक शांतिवादी थे। सावरकर जो आगे चलकर हिन्दू महासभा का नेतृत्व करेंगे, ने हिंदुत्व नाामक एक दक्षिणपंथी बहुसंख्यकवाादी विचार को जन्म दिया था -यह विश्वास कि हिन्दू पहचान भारतीय पहचान से अविभाज्य है।

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हिंदुत्व क्या है?

वी.डी सावरकर को क्रांतिकारी समूह अभिनव भारत के साथ अपने सम्बन्ध के लिए 1910 में गिरफ्तार किया गया। मुकद्दमे के बाद, उन्हें  50 साल के कारावास की सजा सुनाई गयी और कुख्यात सेलुलर जेल के लिए 4 जुलाई 1911 को ले जाया गया था। सजा के लेकर जेल से रिहा होने तक, सावरकर ने कई दया याचिकाएं लिखीं। 1920 में, महात्मा गांधी, विट्ठलभाई पटेल और तिलक जैसे  कांग्रेस के नेताओं ने भी इनके बिना शर्त रिहाई की मांग की। 1921 में, सावरकर को रत्नागिरी में एक जेल ले जाया गया था, उन्हें आखिर में 1924 में कड़े प्रतिबंधों के तहत रिहा किया गया था – ये प्रतिबंध उसकी गतिविधियों पर 1937 तक बने रहेंगे – उन्हें रत्नागिरी जिला छोड़ने के लिए इजाज़त नहीं थी।

1923 में, सावरकर ने अपने 55 पेज की पैम्फलेट पुस्तिका 1 हिंदुत्व: हिन्दू कौन है?  में हिंदुत्व की विचारधारा को परिभाषित किया।[1]

सावरकर हिंदू को एक जातीय, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान के रूप में मानते है। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप या “अखंड भारत”, जो हिमालय और हिंदू कुश के दक्षिण का भौगोलिक क्षेत्र है, को हिन्दुओं की मातृभूमि के रूप में माना।

जो लोग भारत को अपनी पितृभूमि और  पुण्यभूमि भी मानते हैँ, सावरकर उन्हेँ हिन्दु मानते हैं। उन्होंने  इसके लिए एक संस्कृत दोहे का उपयोग किया:

आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, भारत भूमिका यस्य
पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव सा वै हिंदू रीती स्मृतः

सावरकर ये भी बहुत जोर देकर कहा है कि गैर भारतीय धर्मों के लोगों को कभी भी “हिंदुओं” के रूप में नहीं पहचाना जा सकता है

यही कारण है कि हमारे मुसलमान या ईसाई देशवासियों,जिन्हें मूल रूप से जबरन एक गैर हिन्दू धर्म में परिवर्तित कर दिया गया था और इसके परिणामस्वरूप जिन्हें एक ही जन्मभूमि और एक ही संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा -भाषा, कानून,रस्में, लोकगीत और इतिहास – हिंदुओं के साथ विरासत में मिला है, वो हिन्दू नहीं हैं और उन्हें हिंदुओं के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती।

 

 

हालांकि किसी अन्य हिन्दू की तरह उनके लिए भी हिंदुस्तान जन्मभूमि है, अभी तक यह उनके लिए एक पुण्यभूमि नहीं है। उनके पुण्यभूमि दूर अरब या फिलिस्तीन में है।

खुद सावरकर के अनुसार, हिंदुत्व, हिंदू धर्म से अलग है । उन्होंने हिंदुत्व शब्द का उपयोग सभी भारतीय चीजों के लिये एक सांस्कृतिक  रूप में किया है। उसने कहा:

हिंदुत्व सिर्फ एक शब्द नहीं बल्कि एक इतिहास है। सिर्फ हमारे लोगों की आध्यात्मिक या धार्मिक इतिहास ही नहीं, कई बार यह अन्य सजातीय शब्द हिंदू धर्म के साथ गलती से मिला दिया जाता है, लेकिन पूर्ण में एक इतिहास। हिंदू धर्म केवल हिंदुत्व का एक व्युत्पन्न, एक अंश, एक हिस्सा है। हिंदुत्व हमारे हिन्दू जाति के पूरी सोच और गतिविधि के सभी विभागों को गले लगाती है

पैम्फलेट समान रक्त,समान संस्कृति,समान कानूनों और संस्कार के संदर्भ में हिंदुत्व को परिभाषित करता है।

हिंदुत्व की पहली अनिवार्यता भौगोलिक होनी चाहिए। एक हिंदू मुख्य रूप से खुद में या अपने पूर्वजों के माध्यम से ‘हिंदुस्तान’ का नागरिक है और उसकी भूमि को अपनी मातृभूमि होने का दावा करता है।

हिंदुत्व की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण जरूरी है कि एक हिंदू एक हिन्दू माता-पिता का वंशज  है, उसकी रगों में प्राचीन सिंधु का रक्त दौड़ रहा है।

 

इस प्रकार हिंदुत्व के इस तीसरे अनिवार्यता की उपस्थिति जो हर हिंदू मे अपनी जातीय संस्कृति के लिये एक असामान्य और प्यार व मोह की आवश्यकता है, हमें पूरी तरह से हिंदुत्व की प्रकृति का निर्धारण करने के लिये सक्षम करता है

सावरकर ने अपने पैम्फलेट में स्पष्ट किया कि हिंदू धर्म केवल “हिंदुओं” के बहुमत का धर्म है, मूल रूप से, “हिन्दू” की इस परिभाषा मेँ  सिख, बौद्ध या जैन के रूप में अन्य भारतीय धर्मों के अनुयायी भी शामिल हैँ ।

हिंदू धर्म का अर्थ है हिन्दू लोगों के बीच आम तौर पर पाये जाने वालि धार्मिक विश्वासों की प्रणाली।जाहिर तौर पर

हिंदू धर्म का मतलब वो धर्म या धर्मों  का होना चाहिए जो इस देश और इन लोगों के अपने और विशेष होँ

संक्षेप में,

    • सावरकर की हिंदुत्व विचारधारा राष्ट्रीयता कोधर्म , संस्कृति और नस्ल के आधार पर  परिभाषित करती है  ।
    • सावरकर अन्य भारतीय धर्मों को हिंदू धर्म के बराबर समझता है, और उनके अनुयायियों के साथ हिंदू के सामन रूप में व्यवहार करता है
    • यह गैर-भारतीय धर्मों के अनुयायियों के लिए अखंड भारत के हिंदू राष्ट्र की नागरिकता पर एक समान दावा होने के रूप में नहीं स्वीकार करता
    • हिंदुत्व का विचार विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के मेल से बानी एक सांझी मिली-जुली विरासत और पैदा हुए भारतीय पहचान की धारणा को नहीं मानता है।
    • सावरकर के हिंदुत्व के आधार पर बना एक हिंदू राष्ट्र, हिन्दू प्रभुत्व और दबदबे की बात करता है, एक जहाँ गैर भारतीय धर्म के अल्पसंख्यकों को दूसरी श्रेणी के नागरिक के तौर पर देखा जाता है।

दो राष्ट्र सिद्धांत

मुसलमानों की ओर सावरकर के दृष्टिकोण, जो विभाजन से पहले भारत की आबादी का एक चौथाई हिस्सा थे, आँखें खोलने वाला है। वो उन्हें विदेशी और अलग, और असली भारतीयों के रूप में नहीं माना है। उनके लेखन और भाषण के दौरान, वह मुसलमानों को बर्बर, अनैतिक और जीवन के हिंदू तरीके को नष्ट करने के लिए उत्सुक, के रूप में दर्शाता है । अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें सत्र को संबोधित करते हुए 1937 में सावरकर ने कहा:

“दो विरोधी राष्ट्र भारत में अगल बगल रह रहे हैं”

‘भारत को आज एक एकजुट और समरूप राष्ट्र नहीं माना जा सकता। इसके विपरीत, भारत में दो मुख्य राष्ट्र के लोग हैं: हिंदु और मुसलमान”

इसलिए, यह तर्क दिया जा सकता है कि हिंदू और मुसलमान के दो अलग-अलग जातियों, होने का दो राष्ट्र सिद्धांत का विचार, जिसे मुस्लिम लीग के एमए जिन्ना ने 1939 में किया था, सावरकर ने उनसे भी पहले ही वही विभाजनकारी बातें कही थीं।

15 अगस्त, 1943 को, सावरकर नागपुर में कहा, [2]

“मेरा श्री जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत के साथ कोई झगड़ा नहीं है। हम हिंदू, अपने आप से एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं। “

तो, हिंदुत्व के नायक, वो समूह जिसने विभाजन की अनुमति देने के लिए गांधी को दोषी ठहराया, मातृभूमि के टुकड़े हो जाने का रोना मचाया, ने वास्तव में खुद को विभाजन के पीछे के सिद्धांत का समर्थन किया था, शायद इसके फैलाव में मदद भी की थी!

लेकिन, हम यहां कहानी में आगे कूद रहे हैं, चलिए पहले ये देखें की 1923 में कैसे इस पुस्तिका के प्रकाशन ने, भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद के इतिहास को प्रभावित किया।

स्वतंत्रता पूर्व इतिहास

हिंदुत्व संगठनों की उत्पत्ति

ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का गठन 1906 में किया गया था, और इसने ब्रिटिश भारत में मुसलमानों के लिए एक अलग निर्वाचन क्षेत्र के लिए अभियान सफलतापूर्वक चलाया। इसके जवाब में, 1915 में लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय जैसे कुछ प्रमुख हिंदू नेताओं ने हिंदू महासभा का गठन किया। हालांकि, कई वर्षों के लिए, हिंदू महासभा  निष्क्रिय था क्योंकि आर्य समाजियों और सनातनी गुटों के बीच सामाजिक सुधार और ब्रिटिश के लिए प्रतिरोध के स्तर पर आंतरिक असहमति बनी रही।

जिस हिंदू राष्ट्रवाद के रूप को आज हम जानते हैं, वो महाराष्ट्र में 1920 के दशक में पैदा हुआ था। इसकी विचारधारा को सावरकर द्वारा उसके हिंदुत्व पैम्फलेट में संहिताबद्ध किया गया, एक ऐसे समय जब उसे अभी भी रत्नागिरी जिले के भीतर रहने के लिए प्रतिबंधित किया गया था, और इससे पहले कि वह आधिकारिक तौर पर हिंदू महासभा के साथ जुड़े थे।

जबकि सावरकर ने हिंदू राष्ट्रवाद को एक विचारधारा प्रदान की, उसने कोई कार्रवाई की एक योजना की रूपरेखा तैयार नहीं किया है जिसके द्वारा हिंदुओं में सुधार और स्वयं को संगठित किया जाता। यह कार्य एक और मराठी, के बी हेडगेवार द्वारा लिया गया था, जो सावरकर के लेखन से गहराई से प्रभावित था।

हेडगेवार के माता-पिता की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी, वह हिंदू महासभा के अध्यक्ष डॉ बी एस मूंजे के साथ नागपुर में रहते थे। दोने के बीच पिता-पुत्र की तरह एक बहुत करीबी रिश्ता था। डॉ मूंजे ने हेडगेवार को अपने स्कूल के साथ-साथ चिकित्सा शिक्षा कलकत्ता में पूरा करने में आर्थिक रूप से मदद की।  मार्च 1925 में,  डॉ मूंजे ने एक परिचय पत्र के साथ हेडगेवार को सावरकर से मिलने  के लिए रत्नागिरी भेजा।

हेडगेवार सावरकर से मिलने गया था, जो रत्नागिरी में हिरासत में था । वहाँ उन दिनों में प्लेग का प्रकोप था, सावरकर सीरगाओं में विष्णु पंत दामले के घर में चला गया था। हेडगेवार ने वहाँ सावरकर के साथ विचारों का आदान-प्रदान में दो दिन बिताए।

आरएसएस

इस बैठक के छह महीने बाद सितम्बर 1925 में, पांच हिन्दू महासभा के नेताओं के नेतृत्व में के बी हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन किया। शुरू में इसकी एक युवा मोर्चा, और हिंदू महासभा के एक नर्सरी के रूप में परिकल्पना की गई थी। वैचारिक रूप से, आरएसएस वास्तव में हिंदू महासभा के बहुत करीब था। 1948 तक दोनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के बहुत से सदस्य भी दोनों संस्थाओं में होते  थे, गांधी की हत्या के बाद सरदार पटेल द्वारा दोनों को ही एक साथ प्रतिबंधित कर दिया गया था। तब से, आरएसएस ने हिंदू महासभा से खुद को अलग करने की कोशिश की है।[3]

हेडगेवार ने फासीवादी संगठनात्मक व्यवस्था के अनुसार समाज के सैन्यकरण के विचार का समर्थन किया था। उसके अपने गुरु, मूंजे मुसोलिनी से व्यक्तिगत रूप से मिले थे। जनवरी 1934 में, हेडगेवार ने फासीवाद और मुसोलिनी पर एक सम्मेलन की अध्यक्षता की। मार्च में, 1934 हेडगेवार जर्मनी और इटली के समकालीन फासिस्ट राज्यों की तर्ज पर कैसे हिंदुओं को सैन्य रूप में संगठित किया जाए, इस विषय पर एक सम्मेलन का आयोजन किया। [4]

ब्रिटिश खुफिया के ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर नोट’ शीर्षक की एक 1933 गुप्त रिपोर्ट में कहा गया है कि:

यह बात शायद कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी कि संघ भविष्य के भारत में खुद को इटली के ‘फेसिस्ट’ जर्मनी के ‘नाजियों’ के सामान होने के लिए उम्मीद कर रहे हैं।

1939 में हेडगेवार ने उत्तराधिकारी के तौर पर एमएस गोलवलकर को चुना। अगले 34 वर्षों के लिए गोलवलकर  आरएसएस के लिए उनके सरसंघचालक (प्रमुख) रहे, और इसके सबसे प्रभावशाली नेता रहे हैं, जिसने प्रारंभिक वर्षों के दौरान आरएसएस को एक प्रारूप दिया है।

गोलवलकर के शिष्यों के बीच अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी भी थे। गोलवलकर द्वारा प्रशिक्षित कई भाजपा नेताओं की तरह ही वे उसे पूजते थे। जब नरेंद्र मोदी नामक 8 साल का एक लड़का 1958 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हुआ, तब भी संगठन के चारों ओर गोलवलकर का प्रभाव तब भी मौजूद था। 2007 में मोदी ने “पूजनीय” गुरु गोलवलकर के प्रोफाइल पर एक लंबा अतिप्रशंसायुक्त लेख लिखा, और खुद यह दावा किया कि गोलवलकर का प्रभाव केवल विवेकानंद से पीछे था।[5]

राष्ट्रीयता और धर्म पर आरएसएस विचारधारा

गोलवलकर की मौलिक पुस्तक,  हम, या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा को लंबे समय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की “बाइबल” के सामान माना जाता था।

सावरकर की तरह, गोलवलकर भी एक राष्ट्र को परिभाषित करने के सजातीय यूरोपीय राष्ट्र स्टेट्स,  के विचारों का उपयोग करता है (द्वितीय अध्याय)

एक स्थायी राष्ट्र पांच अलग पूरे प्रसिद्ध पांच “एकताए” में जुड़े हुए कारकों में से एक यौगिक है – भौगोलिक (देश), नस्लीय (रेस), धार्मिक (धर्म), सांस्कृतिक (संस्कृति) और भाषाई (भाषा) ।

गोलवलकर एक राष्ट्र, जिससे कुछ सीखा जाए, के लिए की सही उदाहरणों में से एक के रूप में समकालीन नाजी जर्मनी को देखा। उन्होंने जर्मनी में 1930 के दौरान जारी यहूदियों को निशाना बनाता हुए नाजी अभियान का समर्थन भी किया  था।  गोलवलकर ने कहा है:

राष्ट्र आइडिया के सभी पांच घटकों की पुष्टि आधुनिक जर्मनी में हुई है

अपनी नस्ल और संस्कृति की पवित्रता बनाए रखने के लिए, जर्मनी द्वारा निर्भीकता से अपने देश का यहूदियों से शुद्धिकरण ने दुनिया को हैरान कर दिया है। अपने नस्ल का गर्व यहाँ उच्चतम स्तर पर प्रकट किया गया है। जर्मनी से पता चला है कि कैसे नस्लों और संस्कृतियों के लिए, जिनके मतभेद गहरे हों, यह असंभव है की वह संयुक्त  रूप में पूर्ण में आत्मसात हो जाएँ। हिंदुस्तान में हमारे लिए एक अच्छा सबक है जानने के लिए और इससे लाभ पाने के लिए

उन्होंने भारत के लिए धर्मनिरपेक्षता को अस्वीकार कर दिया, सुझाव दिया कि हिंदू धर्म ही सच्चा धर्म था, और कहा कि

इस तरह के धर्म को व्यक्तिगत या सार्वजनिक जीवन में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है ।इसकी अपने विशाल महत्व के अनुपात में राजनीति में भी एक जगह होनी चाहिए।

सावरकर की राय कि भारत सिर्फ हिंदुओं के लिए है, को गोलवलकर ने भी दोहराया  था। अध्याय छठी में एक फुटनोट में उन्होंने मौलाना मोहम्‍मद अली, के एक उदाहरण का उपयोग करता है, जिनका लंदन में निधन हो गया था, लेकिन उसके अवशेषों यरूशलेम के लिए भेजा जाना चाहता था (गोलवलकर गलती से इसे यह मक्का के लिए समझता है !), और सावरकर के हिंदुत्व की पुण्यभूमि के तर्कों की तरह, वह टिप्पणी करता है:

यह उदाहरण दृढ़ता से हमारे प्रस्ताव की पुष्टि करता है – कि इस देश में हिंदू अकेले ही राष्ट्र हैं, और मुसलमान और अन्य वास्तव में यदि राष्ट्र विरोधी नहीं तो भी कम से कम राष्ट्र के शरीर से बाहर तो हैं ही।

अध्याय 5, भारत में रहने वाले गैर हिंदू पर उसका रुख स्पष्ट करता है।

अगर, जैसा निर्विवाद रूप से साबित हो जाता है, हिंदुस्तान हिंदुओं की भूमि है और अकेला हिंदू के पनपने लिए जन्मभूमि है, तो उन सभी की क्या नियति हो जो आज, हालांकि हिन्दू जाति, धर्म और संस्कृति से संबंधित नहीं है, हिन्दुओं की भूमि पर रह रहे हैं?

प्रारंभ में हम ध्यान में रखना चाहिए जहां तक ‘राष्ट्र’ का सवाल है, उन सभी को, जो उस राष्ट्र के विचार की पांच-सीमाओं के बाहर गिर जाते हैं, का राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं हो सकता है, जब तक वे अपने मतभेदों को ना छोड़ दें, राष्ट्र की भाषा, धर्म और संस्कृति को अपनायें, और पूरी तरह से खुद को राष्ट्रीय नस्ल में  सम्मिलित न कर लें। जब तक वे अपने, नस्लीय धार्मिक और सांस्कृतिक अंतर को बनाए रखते हैं, वे केवल विदेशी ही हो सकते हैं।

 

 

विदेशी तत्वों के लिए केवल दो रास्ते खुले हैं – या तो स्वयं को राष्ट्रीय नस्ल में विलय कर लें और उसकी संस्कृति को अपनायें , या जब तक राष्ट्रीय नस्ल उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे सकता है, तब तक उसकी दया पर यहाँ रहें, और राष्ट्रीय नस्ल की मर्ज़ी पर देश छोड़ना होगा।

 

 

“… हिंदुस्तान में विदेशी नस्ल  को चाहिए या तो हिंदू संस्कृति और उसकी भाषा को अपनायें, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीख लें, हिन्दू जाति और संस्कृति के गौरव के अलावा कोई और विचार सोचें भी नहीं, यानी की अपने अलग अस्तित्व को भूलकर हिन्दू नस्ल  में मिल जाएँ। या, वो देश में रह सकते हैं,  पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के अधीनस्थ, कुछ भी दावा न करें, कोई विशेषाधिकार के योग्य न समझे जाएँ, – नागरिकों के अधिकारों के भी नहीं । उन्हें अपनाने के लिए, कोई और रास्ता नहीं होना चाहिए। “

2006 में, अपनी पहली प्रकाशन के 67 वर्ष बाद, आरएसएस ने एमएस गोलवलकर की किताब हम, या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा  से खुद का आधिकारिक तौर पर पल्ला झाड़ लिया:[6]

“यह पुस्तक न तो हमारे गुरुजी के बाद के विचारों, और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है”

तो, क्या नौजवान आरएसएस सुप्रीमो ने नाजी जर्मनी और फासिस्ट इटली की विफलताओं से कुछ सीखा था, और अपनी कट्टरता से भरे विचारों पर दोबारा गौर किया था? 1966 में प्रकाशित एक 60 साल बूढ़े हो चुके गुरुजी गोलवलकर अपने अन्य पुस्तक विचार का एक गुच्छा में गोलवलकर लिखते हैं कि[7]

“राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए देश के भीतर शत्रुतापूर्ण तत्व, बाहर से हमलावरों से बहुत अधिक खतरा पैदा करते हैं”। उन्होंने कहा कि तीन प्रमुख “आंतरिक धमकी” :: मुसलमान; ईसाइ; कम्युनिस्ट “।

हिंदू महासभा

शुरू में एक स्वतंत्र राजनीतिक दल न होकर, हिंदू महासभा कांग्रेस के भीतर एक सांस्कृतिक लॉबी समूह की तरह ही माना जाता था, और कांग्रेस के एक सहायक के रूप में काम करके संतुष्ट था। आम सहमति, मालवीय द्वारा 1924 में उनकी अध्यक्ष पद के भाषण में व्यक्त की गयी थी :

किसी भी  हिन्दू के लिए कांग्रेस का विरोध करना एक शर्म की बात  होगा

कांग्रेस के साथ यह तालमेल अगले अध्यक्ष मूंजे के तहत जारी रहा। हालांकि, जब परमानंद 1933 में नेता बन गए, हिंदू महासभा ने अपनी स्वायत्तता पर जोर देना शुरू कर दिया।

दरअसल, जब तक अभ्यास सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस के दोहरी सदस्यता पर प्रतिबंध नहीं लगाया था, हिंदू महासभा या मुस्लिम लीग का एक बहुत बड़ा तबका इन संगठनों के साथ-साथ कांग्रेस का भी सदस्य था।

1937 में, जैसे ही रत्नागिरी में रहने के बारे में उस पर लगे प्रतिबंध को उठा लिया गया, सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और उन्हें पुनर्जीवित किया।

उसी वर्ष, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारतीय प्रांतीय चुनावों में भारी जीत हासिल की, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा का सफाया हो गया। पर, 1939 में, भारतीय लोगों के परामर्श के बिना द्वितीय विश्व युद्ध में भारत के शामिल होने के विरोध में कांग्रेस मंत्रालयों ने प्रांतीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया । इसके नतीजे में हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग और अन्य दलों के साथ मिलकर सिंध, फ्रंटियर और बंगाल में सरकारें बनायीं।

9 अक्टूबर, 1939 को सावरकर भारत के वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो से मिले। लॉर्ड लिनलिथगो ने भारत के लिए सचिव लॉर्ड जेटलैंड को मुलाकात की सूचना दी:

हमारे हित अब एक ही थे और इसलिए हमें  एक साथ काम करना चाहिए।

हिंदू महासभा खुले तौर पर भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया और इसका आधिकारिक तौर पर बहिष्कार किया।बंगाल में हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ब्रिटिश सरकार को एक पत्र भी लिखा, कि यदि कांग्रेस ब्रिटिश शासकों के लिए भारत छोड़ो का आह्वाहन करती है, तो उसे कैसे जवाब देना चाहिए। 26 जुलाई, 1942 को दिनांकित इस पत्र में उन्होंने लिखा है:

सवाल यह है कि इस आंदोलन (भारत छोड़ो) का बंगाल में मुकाबला कैसे किया जाए? प्रांत के प्रशासन को इस तरह से चलाया जाना चाहिए है कि कांग्रेस का सबसे अच्छा प्रयासों के बावजूद,यहआंदोलन प्रांत में जड़ बनाने में असफल हो जाये ।

मुखर्जी 1944 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने।

मार्च 1943 में, सिंध सरकार अविभाजित भारत की पहली प्रांतीय विधानसभा बनी जिसने पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया। भारत के किसी भी राजनीतिक विभाजन करने के लिए हिंदू महासभा के घोषित सार्वजनिक विरोध के बावजूद, सिंध सरकार में शामिल महासभा मंत्रियों में से किसी ने इसके विरोध में इस्तीफा भी नहीं दिया था

महात्मा गांधी की हत्या

20 जनवरी 1948 को, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, दिगंबर बिल्ला, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे महात्मा गांधी पर हमले को अंजाम देने दिल्ली में बिरला हाउस पहुँचे। प्लान यह था कि मदनलाल पाहवा मंच के पास एक बम विस्फोट करेगा, जबकि दिगंबर बगडे या शंकर किश्तैय्या दहशत में होने वाली अफरा तफरी और भगदड़ के दौरान गांधीजी के सिर में गोली मार देंगे। यह योजना विफल हुई, और मदनलाल पाहवा को गिरफ्तार कर लिया गया।[8]

दस दिन बाद, 30 जनवरी 1948 को, नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को मार डाला था  – जब गांधी जी अपनी शाम की पूजा से बाहर आ रहे थे, उसने एक बेरेटा एम 1934 अर्द्ध स्वचालित पिस्तौल से पॉइंट ब्लैंक रेंज से गांधी जी पर 3 गोलियां चलाई।[9]

रामचंद्र विनायक गोडसे, पुणे जिले के एक गांव में मई 1910 में पैदा हुआ था. वह कई पुरुष बच्चों में से पहला था जो जन्म के बाद जीवित रह गया था। एक कथित अभिशाप से दूर रहने, उसकी मां ने उसकी नाक एक नथ से छिदवा दी थी, और फलस्वरूप उसका नाम नाथूराम पड़ गया।[10]

नाथूराम मैट्रिक परीक्षा में फेल हो गया था, लेकिन उसका मन राजनीति में लगने लग गया था। हिंदुत्व को परिभाषित करने वाले, और एक हिंदू राष्ट्र की बात करने वाले विचारक सावरकर के साथ 1929 में रत्नागिरी में हुई एक बैठक उसके लिए एक स्थायी प्रभाव साबित हुई ।

नाथूराम गोडसे 22 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो गया, और 1932 में पश्चिमी महाराष्ट्र के एक विस्तारित दौरे में हेडगेवार और बाबूराव सावरकर (वीडी सावरकर के भाई) के साथ रहा. तकनीकी तौर पर यह साबित करने के लिए मुश्किल हो सकता है की गोडसे कभी संघ का एक सदस्य था या नहीं था, क्योंकि आरएसएस ने सदस्यता का कोई आंकड़ा नहीं रखा। किसी को भी जो उसकी शाखाओं में से एक में आया, को एक सदस्य के रूप में देखा जाता था। इन दिनों, कम से कम सार्वजनिक रूप से, आरएसएस के लोग गोडसे को सदस्य के रूप में स्वीकार करने से मुकरते हैं ।

1944 में, सावरकर से 15,000 रुपये का अनुदान के साथ, नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे  चार पेज दैनिक, दैनिक अग्रणी शुरू कर दिया। इस तरह सावरकर के लिए गोडसे के मन में इतनी भक्ति थी, कि वह अपने अखबार के मास्टहेड पर सावरकर के चित्र डाल दिया।

नाथूराम गोडसे से पल्ला झाड़ते हुए, लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि

“गोडसे ने 1933 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंध तोड़ दिए थे… उसने आरएसएस की आलोचना करनी शुरू कर दी थी”।

खुद गोपाल गोडसे की अपनी स्वीकृति

आडवाणी के दावे का साफ़ साफ खण्डन किसी और ने नहीं, बल्कि नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे ने किया था, जो भी गांधी की हत्या करने के साजिश का एक आरोपी था.[11]

(28 जनवरी, 1994, अरविंद राजगोपाल द्वारा साक्षात्कार) ‘फ्रंटलाइन’ को दिए एक साक्षात्कार में गोपाल गोडसे ने कहा:

प्रश्न: क्या आप आरएसएस का एक हिस्सा थे?

 

उत्तर: सभी भाई आरएसएस में थे। नाथूराम,दत्तात्रेय, मैं और गोविंद। आप कह सकते हैं कि हमअपने घर में नहीं बल्कि आरएसएस में बड़ा हुआ थे। यह हमारे लिए एक परिवार की तरह था।

प्रश्न: नाथूराम आरएसएस में रुके थे? वह इसे छोड़ा नहीं था?

 

उत्तर: नाथूराम आरएसएस में एक बौद्धिक कार्यकर्ता बन गया था।उसने अपने बयान में कहा है कि वह आरएसएस छोड़ दिया है। उन्होंने यह कहा क्योंकि गोलवलकर और आरएसएस गांधी की हत्या के बाद एक बहुत मुसीबत में थे। लेकिन वह आरएसएस नहीं छोड़ा था।

 

 

प्रश्न: आडवाणी ने हाल ही में कहा है कि नाथूराम आरएसएस से कोई संबंध नहीं था।

 

उत्तर: मैं उसका मुकाबला किया है और कहा की यह कहना कायरता है। आप कह सकते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक प्रस्ताव पास नहीं किया है, की ‘जाओ और गांधी की हत्या करो।’ लेकिन आप उसे (नाथूराम) त्याग नहीं देते है। हिन्दू महासभा ने उसे त्याग नहीं दिया।

1944 में, जब वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में एक बौद्धिक कार्यकर्ता था, नाथूराम ने हिन्दू महासभा का काम शुरू कर दिया।

नाथूराम गोडसे के सावरकर को पत्र

आगे भी परिस्थितिजन्य सबूत हैं जिनसे कि गोपाल गोडसे की बाद की पुष्टि होती है, और पता चलता है कि आडवाणी का दावा तथ्यात्मक रूप से गलत है। 1938-1946 के दौरान सावरकर को नाथूराम गोडसे के पत्रों  [12] से पता चलता है कि वह सक्रिय रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन कर रहा था। 28 फरवरी 1938 दिनांकित एक पत्र में, नाथूराम गोडसे सावरकर को लिखते हैं:[13]

“सर,आपका लक्ष्य है हिंदू राष्ट्र कायम करना। 50,000 अनुशासित आरएसएस कार्यकर्ता भी अपने दिल में यही आकांक्षा रखते हैं।ये स्वयंसेवक पंजाब से लेकर कर्नाटक तक फैले हुए हैं। बस उनको आपके नेतृत्व और मार्गदर्शन की कमी है,और वो आपका इंतजार कर रहे हैं। “

​​आरएसएस बैठकों पर सीआईडी रिपोर्ट

गांधी की हत्या के मामले में आरएसएस सीधे नहीं फंसा था, लेकिन इसका मुख्य नेता इस तरह के कार्य के खिलाफ नहीं था। विभिन्न सीआईडी ​​रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि 1947 के दौरान अपनी बैठकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता गांधी, नेहरू और अन्य कांग्रेसी नेताओं को धमकी जारी कर रहे थे. दिसंबर 6, 1947 को , गोलवलकर ने दिल्ली के पास गोवर्धन के शहर में आरएसएस कार्यकर्ताओं की बैठक बुलाई। इस बैठक पर पुलिस रिपोर्ट में कहा गया है कि यह चर्चा की गयी कि  :

“लोगों को आतंकित करने के लिए और उन पर अपनी पकड़ पाने के लिए कांग्रेस के प्रमुख व्यक्तियों की हत्या किस प्रकार की जाए”।

दो दिन बाद, गोलवलकर ने दिल्ली में रोहतक रोड शिविर में कई हजार स्वयंसेवकों के एक भीड़ को संबोधित किया।[14] दिल्ली पुलिस सीआईडी रिपोर्ट ने रिकॉर्ड किया की गोलवलकर ने क्या कहा:

“महात्मा गांधी अब किसी को भी गुमराह नहीं कर सकते। हमारे पास ऐसे साधन हैं जिसके तहत ऐसे लोगों को तुरंत खामोश किया जा सकता है , लेकिन यह हमारी परंपरा है कि हिंदुओं से दुश्मनी नहीं लेनी है। लेकिन अगर हमें इसके लिए मजबूर किया जाता है, तो हम ऐसे रास्ते को भी अपनाएंगे। “

सरदार पटेल के पत्र

गांधी की हत्या के बाद हिंदू महासभा के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया।दिनांक 18 जुलाई 48 में, श्यामा प्रसाद मुखर्जी को एक पत्र में सरदार पटेल ने कहा:

“जहाँ तक आरएसएस और हिंदू महासभा का सवाल है, गांधी जी की हत्या से संबंधित मामले न्यायाधीन है और मैं दोनों संगठनों की भागीदारी के बारे में कुछ भी कहना पसंद नहीं करूंगा, लेकिन हमारी रिपोर्टों से इस बात की पुष्टि होती है कि इन दो की गतिविधियों के परिणाम के रूप में, विशेष रूप से आरएसएस, देश में ऐसा माहौल बनाया गया था जहां इस तरह की एक भयंकर त्रासदी संभव हो सकी।  मेरे मन में कोई संदेह नहीं है हिन्दू महासभा का चरमपंथी गुट इस साजिश में शामिल था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियाँ सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए एक स्पष्ट खतरा पैदा कर रहीं थीं। “

यहाँ पर विचार करने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि, भले ही अंतिम बन्दूक का ट्रिगर किसी भी मोहरे ने दबाया हो, गांधीजी के विरुद्ध घृणा आरएसएस और हिंदू महासभा द्वारा फैलायी गयी थी। यह गोलवलकर और सावरकर ही थे जिन्होंने गांधीजी को एक हिन्दू विरोधी के रूप में दर्शाया और बदनाम किया। उन्होंने एक दुष्प्रचार का अभियान चलाया कि गांधीजी एक राष्ट्र-विरोधी और हिन्दू-विरोधी थे, वह इस्लाम के प्रेमी थे,  और चाहते थे कि भारतका इस्लामीकरण हो जाए, और उनकी अहिंसा की विचारधारा का मतलब हिंदुओं का निरस्त्रीकरण था।

हत्या में सावरकर की मिलीभगत

सरदार वल्लभ भाई पटेल का मानना ​​था कि सावरकर ही गांधी की हत्या करने की साजिश का सरगना था। गांधी की हत्या के मामले में अदालत के समक्ष अपने बयानों में, नाथूराम गोडसे ने ये ख्याल रखा की वह आरएसएस से और साथ ही सावरकर से खुद को दूर रखे।

पाहवा, बड़गे , और बिड़ला हाउस में कई चश्मदीद गवाह की गवाही, साथ ही सबूतों की एक कड़ी के बावजूद (उसके नाम के पहले अक्षर NVG साथ कपड़े मरीना होटल के कमरे में मिले थे), नाथूराम गोडसे ने इस बात से भी इनकार किया की जनवरी 20 बम विस्फोट से उसका कोई लेना देना था.

सावरकर ने साजिश में खुद की किसी भी भागीदारी से इनकार किया, और यह भी दावा किया की वो इन आरोपियों में से आधे लोगों कभी नहीं मिला था । अदालत को दिए उसके लिखित बयान में # 8 देखें ।

अन्य अभियुक्त – शंकर, गोपाल गोडसे और मदनलाल से न मेरी कभी जान पहचान थी, और न ही मैंने कभी उनके बारे में सुना था।

जैसा नीचे के चित्र में साफ़ दिखाई देता है, यह एक सफ़ेद झूठ था।वैसे, यह पहली बार नहीं हुआ था कि सावरकर ने अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए एक मोहरे का इस्तेमाल किया था और उसके बाद घबराकर उसने खुद को किनारे कर लिया हो। सावरकर की मृत्यु के बाद उसके आदेश पर किए गए राजनीतिक हत्याओं के कई उदाहरण सामने आए। [15]

गांधी-हत्या-आरोपी

 आरोपियों की ग्रुप तस्वीर –

बैठे: नारायण आप्टे, सावरकर, नाथूराम गोडसे, विष्णु करकरे।

खड़े:किस्तैया, गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा, दिगम्बर बड़गे

वास्तव में, मामले की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश ने सावरकर सहित सभी आठ आरोपियों के खिलाफ पहले आरोप तय किए था, कि उन्होंने गांधी की हत्या करने की साजिश रची थी। मजे की बात है, वह सभी दूसरों को दोषी करार दिया लेकिन सावरकर को इस तकनीकी कारण पर छोड़  दिया की सरकारी गवाह दिगंबर बड़गे (जो अभियोजन पक्ष के प्रमुख गवाह बन गया) के सबूतों की स्वतंत्र पुष्टि करने के लिए कोई संपोषक सबूत नहीं था।[16]

दिगंबर बड़गे ने सावरकर के खिलाफ गवाही दी थी, लेकिन इस बात का कोई पुष्टीकरण और उसके सबूत को अदालत में पेश नहीं किया गया की नाथूराम गोडसे और सहयोगी नारायण आप्टे 14 और 17 जनवरी 1948 में सावरकर के घर पर गए. दूसरा अवसर पर उसने गोडसे और आप्टे के लिए सावरकर के उत्साहजनक शब्द सुने :

यशस्वी होऊं या  ” (सफल होकर आओ) – गोडसे को सावरकर के अंतिम शब्द

इस बात को अच्छी तरह से स्थापित किया गया था षड्यंत्रकारी सावरकर सदन गए थे। फिल्म अभिनेत्री शांताबाई मोडक ने ब्यान दिया था कि वह पूना एक्सप्रेस में गोडसे और आप्टे से मिलीं और इन दोनों को उन्होंने जनवरी 14 को सावरकर सदन के सामने जोड़ी छोड़ दिया था. इसी तरह, टैक्सी ड्राइवर  ऐटप्पा कोटियन ने अदालत को बताया कि 17 जनवरी को, गोडसे और आप्टे उसकी टैक्सी से शिवाजी पार्क में सावरकर के घर के पास उतरे थे।

न्यायमूर्ति जीडी खोसला, जिन्होंने शिमला उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के लिए फैसले को लिखा है, ने साजिश की पुष्टि करते हुए कहा

“मिस मोडक का सबूत, जो दोनों कैदियों केब्यान द्वारा समर्थित है, काफी हद तकबड़गे के बयान की पुष्टि करता है”

लेकिन अभियोजन पक्ष ने सुनवाई में सत्र न्यायाधीश द्वारा सावरकर के बरी होने के खिलाफ अपील नहीं की थी, और इसलिए इस मामले को उच्च न्यायालय में फिर से खोला नहीं गया।[17]

1966 में सावरकर की मृत्यु के बाद जल्द ही उनके अंगरक्षक, आप्टे रामचंद्र कसार, और अपने सचिव गजानन विष्णु दामले, इन खामियों को कपूर आयोग के सामने भरा।[18]

कसार ने कपूर आयोग से कहा कि गोडसे और आप्टे 23 या 24 जनवरी को, जब वे बम की घटना के बाद दिल्ली से लौटे, सावरकर से मिले थे। दामले ने बयान दिया कि गोडसे और आप्टे जनवरी के मध्य में सावरकर से मिले और उसके साथ बगीचे में बैठे थे ।

जस्टिस कपूर का निष्कर्ष है:

“इन सभी तथ्यों को एक साथ देखने से, सावरकर और उनके समूह द्वारा हत्या करने की साजिश के अलावा कोई भी थ्योरी टिक नहीं पाती है ।”

जब एक महीने के लिए भोजन का त्याग करने के बाद फ़रवरी, 1966 में सावरकर की मृत्यु हो गई, दो हजार आरएसएस कार्यकर्ताओं ने उसके अंतिम संस्कार में उसे गार्ड ऑफ ऑनर दिया।

2003 में, भारतीय जनता पार्टी सरकार ने संसद के केन्द्रीय कक्ष में हिंदुत्व का विचारक, वह विचार जिसने गांधी की हत्या कर दी, सावरकर के चित्र को स्थापित कर दिया।[19]

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आजादी के बाद का इतिहास

आरएसएस – संघ परिवार आकार लेता है

ब्रिटिश राज के दौरान आरएसएस अराजनैतिक बने रहे, और आजादी की लड़ाई से दूर ही रहते थे। भारत की स्वतंत्रता के बाद भी,आधिकारिक तौर पर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दावा किया था की राज्य और सत्ता में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है, हालांकि, एक हिंदू राष्ट्र बनाने का उसका मुख्य उद्देश्य एक अत्यंत राजनीतिक लक्ष्य था।

महात्मा गांधी की हत्या के बाद लगे प्रतिबंध से, आरएसएस नेताओं महसूस किया कि वे राजनीति से बाहर नहीं रह सकते है। आंदोलन के नेताओं का एक वर्ग जो पहले से ही राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जुड़ने को पसंद करता था, अब यह तर्क देने लगे की अब समय की मांग थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अपनी खुद की एक पार्टी शुरू की जाए। आरएसएस के मुखपत्र आर्गेनाइजर के संपादक के.आर. मलकानी ने दिसंबर 1949 में लिखा था

संघ को न केवल अपने आप को बचाने के लिए राजनीति में हिस्सा लेना चाहिए .. बल्कि उसे अपने आदर्शों के और अधिक प्रभावी और जल्दी उपलब्धि के लिए एक राजनीतिक शाखा का विकास करना चाहिए ।

गोलवलकर ने इन नेताओं को हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रह चुके श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ इस पर चर्चा करने के लिए की अनुमति दी। 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु के बाद, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर नेहरू के और भी अधिक कट्टरपंथी दृष्टिकोण के साथ, यह और भी ज़रूरी हो गया। इन वार्ताओं के नतीजे में, 1951 में पहले आम चुनाव की पूर्व संध्या पर, भारतीय जनसंघ की रचना हुई (ये आगे चलकर वर्तमान भारतीय जनता पार्टी या भाजपा बन गयी)।

1948 में दिल्ली में स्थित आरएसएस कार्यकर्ताओं ने एक छात्र संघ – अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) स्थापित किया, और 1955 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने लिए एक मजदूर संघ – भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) बनाया। 1964 में, हिंदू पुजारियों के सहयोग से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) की स्थापना की। 1984 में, विहिप ने एक युवा शाखा – जिसे बजरंग दल कहा जाता है का गठन किया और 1991 में, इसने महिला शाखा दुर्गा वाहिनी का गठन किया।

1953 में मुखर्जी की मृत्यु हो गई, इसके बाद जनसंघ का नेतृत्व दीनदयाल उपाध्याय , बलराज मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी सहित कई नेताओं ने किया। जनसंघ हमेशा दो रणनीतियों और रवैयों के बीच घूमता दिखा :

  1. नरम, इस स्थिति में इसने खुद को एक राष्ट्रीवादी और एक देशभक्ति वाली पार्टी, लोकप्रिय मुद्दों को पकड़कर, गरीब और छोटे निजी स्वामित्व वाली व्यवसायों के के रक्षक के रूप में खुद को दर्शाया ।
  2. गरम, ‘हिंदुत्व’ का एक आक्रामक रूप का प्रचार, गौ रक्षा (गोहत्या प्रतिबंध लगाने द्वारा) आदि अभियान को बढ़ावा देने के आधार पर ।

1977 में जनसंघ का जनता पार्टी, जिसने इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को हराया था, के साथ विलय हो गया । 1980 में पूर्व जनसंघ के नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नाम की एक नई पार्टी की स्थापना की, जो शुरू में नरम रणनीति पर बने रहे।पर, अपनी 1989 पालमपुर बैठक में इसने हिंदुत्व को अपनी विचारधारा के रूप में अपना लिया, और विहिप के राम मंदिर अभियान में शामिल हो गए।

हिंदू महासभा

गांधी की हत्या के बाद में, जब लोगों को गांधी की हत्या में उनकी भागीदारी पता चला था, सावरकर, गोडसे और हिंदू महासभा के खिलाफ गुस्से की प्रतिक्रिया काफी व्यापक थी। हिंदू महासभा पहले से कहीं अधिक हाशिये पर हो गया। इसकी एक समय के उभरते हुए सितारे, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी (जो आज भारत में सबसे बड़ा हिंदू राष्ट्रवादी राजनीतिक दल है) के अग्रदूत, भारतीय जनसंघ, ​​की स्थापना की।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विपरीत, हिंदू महासभा ने नाथूराम गोडसे का कभी भी त्याग नहीं किया, और अभी भी प्रतिवर्ष उसकी मृत्यु की वर्षगांठ को ‘बलिदान दिवस’ के रूप में मनाते हैं। वैचारिक रूप से अभी भी एक ही विचारधारा हिंदुत्व के प्रति वफादार है, वे कभी कभी गोडसे से पल्ला झाड़ने के लिए संघ परिवार की आलोचना करते रहे हैं  ।

2008 में गोपाल गोडसे की बेटी हिमानी सावरकर, जिसने वीडी सावरकर के भतीजे से शादी की है, को हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में चुना गया। वह मूल रूप से 1904 में सावरकर द्वारा स्थापित संगठन अभिनव भारत की अध्यक्ष भी थी, जिसके सदस्यों स्वामी असीमानंद और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर पर मालेगांव में बम विस्फोट, और समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट सहित आतंक के कई कृत्यों में शामिल होने का आरोप लगाया गया है। फिर से आरएसएस से संबंध के आरोप भी हैं, जिन्हें आरोपी स्वामी असीमानंद खुद बयान कर रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस से भी खुद को अलग कर लिया है।[20]

“चीजें जितनी अधिक बदलती हैं, वे उतनी ही अधिक पहले जैसे हो जातीं हैं”

उपसंहार

यह लेख ये समझाने की कोशिश करता है की हिंदुत्व वास्तव में क्या है – एक श्रेष्ठतावादी, सांप्रदायिक विचारधारा, जिसका हिंदू धर्म के गैर सिद्धांतवादी और सहिष्णु परंपराओं के साथ एक मौलिक अंतर है, एक ऐसा धर्म जिसने एक समय चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन को भी पनपने की अनुमति दी थी।

यह भी पता चलता है कि हिंदुत्व के नायक, सावरकर, उनके लेखन और भाषणों में अपनी सारी बहादुरी और जोशीलेपन के बावजूद, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या का कायर षड्यंत्रकारी था, और एक ऐसा इंसान जिसमे अपने कृत्यों की जिम्मेदारी लेने का भी साहस ही नहीं था।

हम यह भी देखते हैं कि हिंदुत्व संगठनों का इतिहास फासीवाद के प्रशंसकों और ब्रिटिश और मुस्लिम लीग के सहयोगियों का रहा है।

आज, संघ परिवार ने सुविधानुसार गोडसे से और यहां तक ​​कि गोलवलकर की मुख्य पुस्तक से ही पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन वे अभी भी सावरकर की प्रशंसा करते हैं।

जिस तरह से भारत की आजादी की कहानी सुनाई जाती है, अब उसे बदलने की शुरुआत हो रही है। श्री मोदी और भाजपा, तथाकथित “मजबूत”, “राष्ट्रवादी” लीडरों को बढ़ावा देना चाहते हैं। 2008 में, गुजरात के मुख्य मंत्री श्री मोदी ने एक वेबसाइट (savarkar.org),का उद्घाटन  किया जो कि उसके विचारधारा को बढ़ावा देता है. इस अवसर पर उन्होंने कहा:

“उसके आसपास गलतफहमी और कई दशकों से बड़े पैमाने पर उसके खिलाफ शातिर प्रचार की वजह से, जनता के लिए अज्ञात है “,

2012 में उन्होंने सावरकर पर एक गुजराती भाषा बायोपिक का भी शुभारंभ किया। मैंने पहले से ही गोलवलकर पर उनके अतिप्रशंसायुक्त निबंध का ज़िक्र किया है।

जैसा कपूर आयोग की रिपोर्ट ने दिखाया, सावरकर निश्चित रूप से महात्मा गांधी की हत्या में शामिल था।

फिर भी अंतिम कारण कि सावरकर को आधुनिक भारत अस्वीकार्य रहना चाहिए, में गांधी की हत्या से कहीं आगे की बात है। यह अपने साथी, गैर-हिंदू, भारतीयों के लिए उनके दृष्टिकोण में निहित है। अपने ही लेखन में उन्होंने बताया है कैसे एक 12 साल के लड़के के रूप में , हिन्दू-मुस्लिम दंगे के बाद, उसने अपने गांव में स्कूल के एक गिरोह का नेतृत्व किया और खुशी-खुशी मस्जिद पर पत्थर फेंके और की खिड़कियों तथा टाइल को तोड़ डाला। ये बयान करते हुए कैसे “हमने दिलभर कर मस्जिद में तोड़-फोड़ की” वह यह भी बताए कि जब मुस्लिम लड़कों का सामना हुआ , वह और उसके दोस्तों ने चाकू और लाठी से इस्तेमाल किया और उन्हें भगा दिया। [21][22]

एक ऐसा विचार जो कि किसी भी भारतीय को धर्म के आधार पर देखता है, भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान के पूरी तरह से खिलाफ है। जो लोग हिंदुत्व को बढ़ावा देते हैं, और सावरकर या गोलवलकर की बातें दोहराते हैं, वो धार्मिक तनाव का फायदा उठाने के लिए मुसलमानों द्वारा किए गए सभी गलतियों की कहानियों को उछालते रहते हैं। इस तरह के बहुसंख्यकवाद की राजनीति, जब एक बड़ा धार्मिक समूह अल्पसंख्यकों को मिटाने निकल पड़ता है, पूरी तरह से विनाशकारी है।  चेतावनी के रूप में हमें कहीं और नहीं, बल्कि सिर्फ अपने पड़ोस में पाकिस्तान की बर्बादी को देखने की जरूरत है। अगर सावरकर के प्रभाव बढ़ता है, तो भारत की सहिष्णुता और संयम खतरे में पड़ जाएंगे।

संदर्भ

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Savarkar, VD. 1923. Hindutva: who is a Hindu? . savarkar.org. [Source]
2.
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3.
Jaffrelot, Christophe. 1998. The Hindu Nationalist Movement in India. Columbia University Press. [Source]
4.
Casolari, Marzia . 2017. Hindutva’s Foreign Tie-up in the 1930s. SACW . http://www.sacw.net/DC/CommunalismCollection/ArticlesArchive/casolari.pdf. Accessed September 1.
5.
Modi, Narendra. 2017. Modi’s biography of Golwalkar suggests RSS leader was vital influence. Scroll.in. August 31. [Source]
6.
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Guha, Ramchandra. 2017. The guru of hate (नफरत के गुरु). The Hindu. http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-features/tp-sundaymagazine/the-guru-of-hate/article3232784.ece. Accessed September 1.
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Who Killed Gandhi? – Vision TV Channel Canada. 2017. Vision TV Channel Canada. http://www.visiontv.ca/who-killed-gandhi/. Accessed September 1.
9.
Mystery shrouds ownership of pistol that killed Bapu – Times of India. 2017. The Times of India. http://timesofindia.indiatimes.com/india/Mystery-shrouds-ownership-of-pistol-that-killed-Bapu/articleshow/16633870.cms. Accessed September 1.
10.
Retracing Nathuram Godse’s journey. 2015. The Indian Express. January 31. [Source]
11.
A.G. Noorani, By. 2013. भाजपा और नाथूराम गोडसे. Frontline. January 23. [Source]
12.
The Hindu : National : “Only Dr. Hedgewar is your equal” . 2017. The Hindu . http://www.thehindu.com/2004/09/21/stories/2004092109381100.htm. Accessed September 1.
13.
Ramchandran, Rajesh. 2004. The Mastermind? Outlook. September 4. [Source]
14.
Exclusive: RSS chief Golwalkar threatened to kill Gandhi – 1947 CID report . 2017. CatchNews.com. http://www.catchnews.com/politics-news/exclusive-rss-chief-golwalkar-threatened-to-kill-gandhi-1947-cid-report-1469535385.html/fullview. Accessed September 1.
15.
Ashraf, Ajaz. 2017. History revisited: Was Veer Savarkar really all that brave? Scroll.in. August 31. [Source]
16.
कैसे सावरकर फांसी से बच गया. 2017. The Hindu. http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/how-savarkar-escaped-the-gallows/article4358048.ece. Accessed September 1.
17.
सावरकर और गांधी की हत्या. 2017. Frontline. http://www.frontline.in/static/html/fl2919/stories/20121005291911400.htm. Accessed September 1.
18.
India: 1969 Report of Jeevan Lal Kapur Commission of Inquiry in to Conspiracy to Murder Mahatma Gandhi (Part 1 and Part 2) – South Asia Citizens Web. 2017. SACW. http://www.sacw.net/article2611.html. Accessed September 1.
19.
“Savarkar cannot be a role model.” 2003. Rediff. March 3. [Source]
20.
Press Release. 2014. The Caravan. February 5. [Source]
21.
The man who thought Gandhi a sissy. 2017. The Economist. http://www.economist.com/news/christmas-specials/21636599-controversial-mentor-hindu-right-man-who-thought-gandhi-sissy. Accessed September 1.
22.
Bundle of contradictions. 2016. theweek.in. January 23. [Source]
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3 comments

  • saaf saaf safed jhut bolne ke liye kis tarah ke tathya kaam me liye hao. newspaper ke editorial jo tum jese hi likhte hai or ek dusre ka reference dete firte hai. matlab me tuje sach manta hu tu mera likha sach maan. the hindu or TOI baki likhe editorial tum jese mansikta ki upaj hai jo tum wapa dusre shabdo me likhte ho. kitna giroge had hoti hai. or isko padhne wale tumhari tarah ke bewkoof hi hote honge.

    • हालांकि आपके कमेंट में सिर्फ बेबुनियाद व्यक्तिगत आरोपबाजी है, कोई तथ्यात्मक प्रश्न या आलोचना नहीं है, हमने इसे प्रकाशित किया है, किसी भी विशेष तथ्य पर यदि आपके पास उनके गलत होने का कोई तर्क/रेफेरेंस आदि हो, तो ज़रूर प्रदान करें.

      सकारात्मक आलोचना का सदैव स्वागत है, चूंकि इससे लेखों में त्रुटियों का सुधार होता है, और इसी बहाने लेखों की कमजोरी का पता भी लगता है, उन्हें बेहतर बनाने में मदद मिलती है.

  • बहुत अच्छा लेख है, वर्तमान पिढी इस हिंदुत्ववादी कर्मठ विचारोंसे बचे, इसलिए ऐसे आर्टीकल की जरुरत है ! हम लेखक को प्रणाम करते है ! यह राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष है, और रहेगा.

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