बहुसंख्यकवाद के खतरे
क्या एक अच्छी विचारधारा के बुरे इस्तेमाल की वजह से हमें एक बुरी विचारधारा का समर्थक बन जाना चाहिए?
बहुसंख्यकवाद एक खतरनाक रास्ता है, ये हमें वही बना डालेगा जिससे कि हम नफरत करते हैं।
60 साल से तथाकथित “छद्म-सेक्यूलरों” के द्वारा “अल्पसंख्यक तुष्टीकरण” के बावजूद आज एक हिंदू की हालत अपेक्षाकृत काफी अच्छी है. बल्कि, वास्तव में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिती ही पहले से कहीं ज्यादा बदतर हो गयी है। तो शायद इसे “छद्म तुष्टीकरण” कहना उपयुक्त हो सकता है। इन तथाकथित “अल्पसंख्यक तुष्टीकरण” नीतियों के परिणाम स्वरुप बहुसंख्यक समुदाय के अधिकांश लोगों को केवल एक छोटी सी झुंझलाहट ही होती है, लेकिन जान-बूझकर इस बात का सांप्रदायिक पार्टियों द्वारा अपने राजनीतिक लाभ के लिए शोषण किया जा रहा है। भले ही भारत में धर्मनिरपेक्षता को लागू करने में कई खामियां होंगी, पर अभी भी यह मौलिक रूप से एक सही विचारधारा है, क्या इसे छोड़कर एक त्रुटिपूर्ण विचारधारा को अपनाना हमारे लिए विवेकपूर्ण और बुद्धिमानी का कदम होगा?
यदि बहुसंख्यक समुदाय के अधिकांश लोग सांप्रदायिक बन जाते हैं, तो यह एक बहुत अधिक खतरनाक रास्ता है।
भारत बनाम पाकिस्तान
विभाजन के पागलपन के बाद भारत और पाकिस्तान को एक ही समाज, प्रणालियों और भूमि विरासत में मिली। दोनों के आय स्तर समान हैं, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि समान है। हम कभी एक ही देश थे – इससे ज्यादा तुलनीय कुछ नहीं हो सकता है।
भारत के राष्ट्र निर्माताओं में देश को उस धार्मिक पागलपन से दूर रखने की अक्लमंदी थी, जिसकी वजह से विभाजन हुआ था, और इन्होंने विविधताओं को साथ लेकर चलता एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का निर्माण करने की कोशिश की।
पाकिस्तान के नेताओं की जरूरत थी की वो अपने अलग अस्तित्व का औचित्य साबित करें, और इसलिए उन्होंने खुद को “हम भारत नहीं हैं, अलग हैं” के हिसाब से दिखाना शुरू किया। लोगों को एकजुट करने के लिए बहुसंख्यक लोगों के धर्म और “संस्कृति” का उपयोग करने का रास्ता चुना। यह भाजपा के वैचारिक मंच हिन्दुत्व यानी धर्म और संस्कृति के आधार पर राष्ट्रवाद को परिभाषित करने के विचार का प्रतिबिम्ब है।
दूसरे शब्दों में, पाकिस्तान बहुसंख्यकवाद को अपनाया है। अपने राष्ट्रवाद को परिभाषित करने के लिए इस्लाम का उपयोग करने की पाकिस्तान की विचारधारा को “मुस्लिमत्व”, या हिंदुत्व के एक मुस्लिम संस्करण के रूप में देखा जा सकता है।
एक ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ को थोपने की यही कोशिश, और बंगाली लोगों को बराबर नागरिक के रूप में स्वीकार करने से इनकार करना ही आगे जाकर उनके फिर से टूटने की वजह बना । 1971 के बाद पाकिस्तान एक 95% मुस्लिम बहुल देश है, पर आज भी वहाँ एक धर्मनिरपेक्ष भारत से कम एकता है।
हम सभी जानते हैं आज वे कहाँ हैं, पर तब भी हम में से कुछ लोग उन्हीं की तरह बनने के लिए उत्सुक लग रहे हैं, जिनसे ये नफरत भी करते हैं, । यदि भारत ने भी बहुसंख्यकवाद को अपनाया तो वह पाकिस्तान की तरह ही हो जाएगा। इसके क्या अंजाम हो सकते हैं- हम पहले से ही गुजरात, मुजफ्फरनगर, में और पाकिस्तान में कुछ झलक देख चुके हैं।
बहुसंख्यकवाद के उदाहरण
बहुसंख्यकवाद का तात्पर्य उस स्थिति से है जब बहुसंख्यक समुदाय यह विश्वास करने लगे कि उसे दूसरों पर अपना वर्चस्व जमाने का अधिकार है, और वह बाकी समुदायों पर अपनी इच्छा और प्रभुत्व को थोपना शुरू कर दे।
इसके भिन्न रूप हो सकते हैं।
कुछ उदाहरण हैं, जिनमे में सभी की वजह से पिछली सदी में सबसे व्यापक नरसंहार हुए :
- श्रीलंका में, यह धर्म और भाषा पर आधारित था – बौद्ध सिंहल बहुसंख्यकवाद ने देश को अल्पसंख्यक तमिलों के साथ एक 30 साल के गृहयुद्ध में झोंक दिया ।
- नाजी जर्मनी में, एक नस्लीय और वैचारिक मंच के नाम पर बहुमत एकत्र किया गया, और ना सिर्फ यहूदियों को मार डाला गया, बल्कि और किसी भी विरोधी विचारधारा के लोगों – कम्युनिस्ट, लेखकों, बुद्धिजीवियों – जिन्होंने फासिस्ट शाषन का विरोध किया, को भी मार डाला गया, भले ही उनका कोई भी धर्म रहा हो। नाजियों ने दुनिया को नियंत्रित करने के लिए एक यहूदी साजिश की कल्पना की, जो उनके आर्य प्रजाति के खिलाफ बताई गयी। 1941-1945 के दौरान नाजियों ने उनके द्वारा नियंत्रित प्रदेशों में 15 लाख बच्चों सहित लगभग 60 लाख यहूदियों की नृशंश हत्या कर डाली।
- रवांडा में, यह विशुद्ध रूप से दो जातीयों के बीच की ऐतिहासिक दुश्मनी की वजह से हुआ था। 85% बहुसंख्यक हुतू लोग 15% अल्पसंख्यक तुत्सी लोगों के साथ ऐतिहासिक दुर्भावना रखते थे, चूंकि तुत्सी उनके पुराने शासक रह चुके थे। 100 दिनों की अवधि में, हुतू बहुसंख्यकों ने 10 लाख तुत्सी मारे, और साथ ही उन हुतु लोगों को भी मार डाला जिन्होंने इस नरसंहार का विरोध किया । इस नरसंहार की शुरुआत तब हुई थी, जब ‘हुतू पॉवर’ की राजनीति खेलने वाले एक नेता, जिसने समाज को बांटने और ध्रुवीकरण बढाने का काम किया था, की सम्भावित हत्या हुई।
बहुसंख्यकवाद के आम लक्षण
यदि आप ऊपर दिए उदाहरणों में से किसी का भी (या सभी का) अध्ययन करें, तो इनके निम्न लक्षण उभर कर सामने आते हैं :
बहुसंख्यक समुदाय
- को अल्पसंख्यको के खिलाफ कुछ शिकायत थी।
- अल्पसंख्यक समुदाय को संदेह की नज़र से देखते थे – “बाहरी लोग”, “धोखेबाज”, ‘पुराने शोषक’
- यह विश्वास रखता था कि वे अपने राष्ट्र के लाभ के लिए एक आवश्यक काम कर रहे थे
- खुद को ही पीड़ित महसूस करते थे!
ज्यादातर मामलों में, “बहुसंख्यक राष्ट्रवाद” के नाम पर लड़ने वाले किसी राजनीतिक गुट ने ऐतिहासिक अन्याय और संदेह की इन भावनाओं फायदा उठाया था ।
क्या ये सब कुछ जाना पहचाना सा लगता है?
इन सभी मामलों में, इन भावनाओं को जब एक बार जगाया गया, तो स्थिति बहुत जल्दी हाथ से बाहर निकल गयी, और परिणामस्वरूप गृहयुद्ध और नरसंहार हुए । याद कीजिये कि भारत में भी 1947 विभाजन के दौरान कितनी जल्दी स्थिति नियंत्रण से बाहर पूरी अराजकता की तरफ चली गयी थी।
पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आये
मैं चुप रहा,
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।फिर वे श्रमिक नेताओं के लिए आये
मैं चुप रहा,
क्योंकि मैं श्रमिक नेता नहीं था।फिर वे यहूदियों के लिए आये
मैं चुप रहा,
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।अंत में वे मेरे लिए आये
और तब तक मेरे लिए
बोलने वाला कोई नहीं बचा था
भाजपा की घोषित विचारधारा, सावरकर का हिंदुत्व के, हिन्दू † वर्चस्व पर आधारित है। यह भारत के लोगों की नागरिकता को उनके जन्मभूमि के साथ उनकी पुण्यभूमि के आधार पर परिभाषित करता है। [1]
यह हर 5वें भारतीय को एक शक के साथ देखते हैं (“मुस्लिम समस्या”) ।
“हमें उनको (मुस्लिम अल्पसंख्यक) को सभी कार्यों में अधिक से अधिक अविश्वास के साथ देखना चाहिए। यहां तक कि भारत स्वतंत्र होने के बाद हमें उनको संदिग्ध दोस्त के रूप में देखना पड़ेगा, बहुत ध्यान रखना पड़ेगा कि भारत की उत्तरी सीमाओं को कट्टर और शक्तिशाली हिंदू सेना के द्वारा अच्छी तरह से संरक्षित हैं, और भारतीय मुसलमान द्वारा सिंधु के पार विदेशी मुस्लिम देशों में जाकर हमारे गैर-हिंदू दुश्मनों से मिलकर हमारे हिंदुस्तान को धोखा देने के संभावित खतरे से हमको बचाते रहे “( हिंदू महासभा के 20वें सत्र का अध्यक्षीय भाषण, नागपुर, 1938)।
एक बड़ी संख्या में संघ के लोग खुले तौर पर दूसरे धर्मों के प्रति कट्टर व असहिष्णु विचार रखते हैं। विशेष रूप से जब पार्टी अध्यक्ष, केंद्रीय मंत्रियों और यहां तक कि प्रधानमंत्री खुद ऐसी चीजें कहना शुरू देते हैं जो पूरे देश के एक नेता के लिए अशोभनीय हैं, तो फिर अब हम इसे “फ्रिंज” के रूप में सिर्फ कुछ सिरफिरों की सोच समझ कर अब नकार नहीं सकते हैं।
राम मंदिर अभियान के दौरान हिन्दू राष्ट्र बनाने के नारे लगातार उठाए गए थे. मौलिक रूप से यह अभियान इस मामले पर कोर्ट के निर्णय की अवहेलना करते हुए, उसे बहुसंख्यक हिंदुओं की इच्छा के सामने झुकाने के बारे में था ।
हिंदू बहुसंख्यकवाद आगे क्या रूप लेगा, हम केवल कल्पना कर सकते हैं। पर इतिहास हमें यही बताता है की यह जो कुछ भी बनेगा, यह देश को और अधिक हिंसा और ध्रुवीकरण, और संभवतः एक नरसंहार में भाग लेने वाले एक फासीवादी समाज की ओर ले जाएगा ।