राफेल घोटाला
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प्रधानमंत्री मोदी ने राफेल सौदा फिर से कुछ इस तरह से कर डाला है कि अंबानियों को भारी फायदा पहुँचे, और इसमें भारत को बहुत अधिक नुकसान हो रहा है। अब किसी भी टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण के बिना हम पहले से तिगुनी कीमत पर कम विमानों को खरीद रहे हैं – बस अंबानियों को पैसा पहुँचाने के लिए।
क्या भारत राफेल घोटाले को रोक सकता है?
आम तौर पर हमें एक घोटाले के बारे में तब पता चलता है जब वो हो जाता है। लेकिन हमारे हर बात पर क्रेडिट खाने वाले प्रधानमंत्री और उनकी गोदी मीडिया का धन्यवाद जो उनकी असफलताओं को उनकी उपलब्धियां बता कर उनका महिमामंडन करते हैं, उनकी वजह से हम भारतीय अपनी आंखों (यदि वे खुली हैं तो) के सामने प्रत्यक्ष रूप से एक घोटाला होते देख रहे है। हम राफेल सौदे के बारे में बात कर रहे हैं।
इस घोटाले में ना केवल हमारी कड़ी मेहनत का पैसा शामिल हैं बल्कि इसके साथ हमारे रक्षा बलों का मनोबल और भारत की सुरक्षा का गंभीर निहितार्थ भी शामिल हैं। यह घोटाला हमें बताता है कि माननीय प्रधान मंत्री वास्तव में किसके लिए काम कर रहे हैं। उन करोड़ों भारतीयों के लिए जिन्होंने उन्हें चुनाव में वोट दिया, या उन पूंजीपतियो के लिए जिन्होंने उनके चुनावी अभियान के लिए “नोट” दिया।
हमें पहले घोटाले को समझना होगा। सौदे में 36 राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद शामिल है जिसे हमारे माननीय प्रधान मंत्री ने सरकार द्वारा फ्रांस सरकार से किये सौदे में खरीदा है।
राफेल डील का इतिहास
2001 के बाद से भारतीय वायुसेना को लगभग 200 मध्यम मल्टी–रोल लड़ाकू विमान (MMRCA) की सख्त आवश्यकता थी। यूपीए (UPA) सरकार ने 2007 में भारतीय वायु सेना की इस मांग को मंजूरी दी और विभिन्न कंपनियो से टेंडर मंगवाने की शुरुआत हुई।
भारतीय वायु सेना ने विभिन्न मध्यम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट निर्माताओं के विभिन्न उत्पादों का बड़े पैमाने में परीक्षण किया जिसमे अमेरिकी F-16 और F-18, रूसी मिग 35, स्वीडिश साब ग्रिपन सहित यूरोफाइटर टाइफून और फ्रांसीसी दसॉ (Dassault) एविएशन कंपनी के राफेल विमान शामिल थे। अंतिम फैसला लेने से पहले इन्हे 4 वर्षो तक अलग–अलग जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों में विश्वसनीयता और संचालन संबंधी व्यवहार्यता को समझने के लिए टेस्ट किया गया। इन सब परीक्षणो के बाद यूरॉफ़ाइटर और राफेल को अंतिम बोली के लिए चुना गया।
यूरोफाइटर (ए ई डी एस) और राफेल के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा के बाद, 2012 में राफेल ने सबसे कम बोली लगा कर (उत्पाद चक्र के रखरखाव की लागत कम होने के कारण ) यह सौदा जीता। वह 10.2 अरब डॉलर में 126 राफेल विमान देने वाली थी, जिसमे 18 विमानों को रेडी–टू–फ़्लाई हालत में दिया जाना था और बाकी 108 विमान HAL (हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड) द्वारा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के माध्यम से भारत मे बनाये जाने थे।[1]
सौदे में अन्य कई और फ़ायदेमंद चीज़े भी थी, जैसे की दसॉ को इस समझौते के साथ भारत में 50% राजस्व का निवेश भी करना था।[2]
दो सौदों की तुलना
मूल सौदा | मोदी का सौदा | |
---|---|---|
विमानों की संख्या | 126 | 36 |
कुल अनुबंध लागत (अरब अमरीकी डालर) | 10.2 | 8.74 |
प्रति विमान लागत (करोड़ अमरीकी डालर ) | 8.1 | 24.3 |
तकनीकी हस्तांतरण | हाँ | नहीं |
तो दसॉ की बोली सबसे कम थी और साथ ही भारत के लिए कई अन्य लाभ से भरी हुई थी, क्योंकि दसॉ दिवालिएपन की कगार पर थी और इस सौदे के बिना एक रक्षा सामग्री सप्लायर के रूप में फ्रांस का भविष्य खतरे में था। ब्राजील और संयुक्त अरब अमीरात में राफेल का निर्यात करने के असफल प्रयासों के बाद दसॉ ने यह सौदा किया। यहां तक कि इससे चीन भी नर्वस था।[3]
इतने असफल प्रयासों के बाद राफेल ने भारत को अपना सर्वश्रेष्ठ सौदा पेश किया और भारत ने उन्हें कॉन्ट्रैक्ट प्रदान किया। समझौता वार्ता तब समाप्त हो गयी जब प्रधानमंत्री मोदी ने पूरा सौदा ही बदल दिया।[4]मोदी ने पूरी तरह से मूल सौदे को बदल दिया और घोषणा कर दी कि वह 36 तैयार (“रेडी–टू–फ्लाई”) विमान मूल सौदे की कीमत से लगभग 3 गुना ज्यादा दाम में फ्रांस से खरीदेंगे।
टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और भारत को दसॉ द्वारा दिये जाने वाले अन्य लाभ जिनकी बदौलत दसॉ ने ये बोली जीती थी वह सब अब इस सौदे का हिस्सा ही नही थे।
मूल अनुबंध में एचएएल (HAL) के साथ भागीदारी व टेक्नोलॉजी ट्रांसफर, भविष्य में भारत की क्षमता के विकास के एक रणनीतिक उद्देश्य के साथ था। भारत हमेशा अन्य देशों से इतने महँगे विमान नही खरीद सकता। टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और भारत मे HAL द्वारा 108 विमानों का निर्माण मूल सौदे का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था, जिसे मोदी ने खत्म कर दिया था। याद रखिये कि वायुसेना की आवश्यकता और अधिक विमानों की है, इसलिए अपने पैरों पर खड़े होकर, आत्मनिर्भरता प्राप्त करना बहुत ज़रूरी है. [5]
मोदी की घोषणा के 3 दिन बाद, रक्षा विशेषज्ञ अजय शुक्ला ने इस विषय पर “मोदी का पेरिसियन ब्लंडर” नामक एक विस्तृत लेख लिखा।[6] रक्षा विश्लेषक डी रघुनाथ ने भी अपने इस लेख में पुराने कॉन्ट्रैक्ट और नए समझौते के बीच के अंतर को विस्तार में समझाया है।
आप खुद ही सोचे कि लगभग 8.9 अरब डॉलर में 36 विमान वह भी सिर्फ 5 साल के रखरखाव के साथ लिए, बिना तकनीकी हस्तांतरण के जब कि लगभग उतने ही रुपयों में 126 विमान 40 साल के रखरखाव के साथ मिलने थे, तकनीकी हस्तांतरण के साथ। ये घोटाला नहीं तो क्या है?
अगर भारत की वायु श्रेष्ठता कम होना मुद्दा था तो एक कंपनी (दसॉ) के साथ जाने के बजाय भारत, दुसरे विकल्प यूरोफाइटर टाइफून के लिए भी बातचीत कर सकता था क्योंकि भारतीय वायुसेना ने तो केवल कम खर्चे के आधार पर राफेल को चुना था जबकि वह फायदा अब नही हो रहा था।
स्वीडन के SAAB ने ग्रिपेन विमानों के लिए, और अमेरिका की लॉकहीड मार्टिन अपने F16 विमानों के लिए, घोषणा की थी कि वे पूरी तरह से भारत में उत्पादन सुविधा को पुनर्स्थापित करने के लिए तैयार हैं। अब तो ये भी नहीं हो रहा.
फिर भी मोदी ने एक ऐसी कंपनी के साथ सौदा किया जो हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) को टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करने के लिए तैयार नहीं थी। मोदी ने वित्त मंत्री और रक्षा मंत्री के साथ अंतिम विवरणों पर चर्चा करे बिना राफेल की खरीद के फैसले में जल्दबाजी क्यों की ?
जो कंपनियां 100% टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के लिए तैयार थी उनको नज़रअंदाज़ क्यों किया गया ?
याद रखें, विमान के जीवन चक्र के अंत तक पूर्ण टेक्नोलॉजी ट्रासंफर और वारंटी ही इस सौदे में आगे बढ़ने के प्रमुख कारण थे जो कि अब नही बचे थे।
एक प्रधानमंत्री जो कहता है कि वो भारत को एक सुपर पावर बनाना चाहता है, ऐसे घोटाले करके भारत को विश्वभर में कभी अपमानित नहीं करता। जो सौदा प्रधानमंत्री द्वारा किया गया है वह पूरी तरह से भारत को लूटने वाला और मोदी जी के पूंजीपति मित्रो को फायदा पहुचाने वाला एक घोटाला है।
सौदे में परिवर्तन का कारण क्या था?
तो माननीय प्रधान मंत्री मोदी ने भारत को लाभान्वित करने वाले एक बढ़िया सौदे को किनारे करके फ्रांस की समृद्धि के लिए भारत के खजाने को खाली करने का काम क्यों किया? असल में ऐसा क्या हुआ था?
मोदी जी के मित्र मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी का आगमन हुआ।
दसॉ से भारत के 126 MMRCA सौदे के 2 सप्ताह से कम समय के भीतर, मुकेश अंबानी दसॉ के पार्टनर बन गए[7]। और उसके कुछ समय बाद अनिल अंबानी भी इस “धंधे” में कूद पड़े। [8]
मोदी के जल्दबाजी भरे एकतरफा निर्णय का वास्तविक कारण दक्षिण एशिया में रक्षा एवं रणनीतिक समीक्षक रिटायर्ड एयर मार्शल अनिल चोपड़ा (पीवीएसएम(एवीएसएम) (वीएम) (वीएसएम) (सेवानिवृत्त) नेे विस्तार से समझाया है।[9]
रिलायंस एरोस्पेस और दसॉ ने एक संयुक्त उद्यम पर हस्ताक्षर किया और भारत में युद्ध विमानों को निर्माण करने का निर्णय लिया। भारत ने जैसे ही दसॉ के साथ कॉन्ट्रैक्ट में हस्ताक्षर किए, रिलायंस दसॉ संयुक्त उद्यम ने तुरंत ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट हासिल कर लिया, जो असल मे भारत सरकार की कंपनी HAL को मिलना चाहिए था। रिलायंस और दसॉ का ये संयुक्त उद्यम पहले चरण में विमान के स्पेयर पार्ट्स बनाएगा और द्वितीय चरण में दसॉ एयरक्राफ्ट का निर्माण शुरू करेगा।
आइए हम रॉफेल सौदे की ऑफसेट रकम के निवेश पर वापस ध्यान दे। कुल मूल्य का 50% लगभग 30,000 करोड़ है।
रिपोर्टस के मुताबिक रिलायंस को 30,000 करोड़ रुपये में से 21,000 करोड़ मिलेंगे। खर्च हटा देने के बाद, रिलायंस इस सौदे से लगभग 1.9 अरब यूरो का शुद्ध मुनाफ़ा कमायेगा [10](भारतीय रुपये के अनुसार लगभग 1,42,97,50,00,000 रुपये) कुछ ज्यादा नही है। क्यों ?? यह बातें हमारी मुख्य धारा के अधिकांश मीडिया घराने आपको नही बताएंगे।
जब दसॉ ने बोली में हिस्सा लिया था तब वह फायदे में नहीं था और अगर उसे कॉन्ट्रैक्ट नही मिलता तब भी उसके पास मोलभाव करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। दसॉ बुरी हालत में था, अपने व्यापार में गैर–पारदर्शी होने के कारण ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा F बैंड-(सबसे खराब रेटिंग) दी गयी थी। जिस के कारण इसे ज्यादा मदद नहीं मिल रही थी और दसॉ के सीईओ खुद भी वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में फंसे हुए थे।[11]
दसॉ–अम्बानी की साझेदारी ने सब कुछ बदल दिया। जो दसॉ 126 राफेल लगभग 10 से 12 अरब अमेरिकी डॉलर में देने को तैयार था जिसमे 18 उड़ान भरने के लिए तैयार हालत में, और 108 एचएएल द्वारा भारत में तैयार किये जाने थे। उसने अब टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और हथियार सिस्टम के लिए अतरिक्त पैसे की मांग की और सौदे को 18-22 अरब डॉलर तक ले गए, उन्होंने HAL द्वारा बनाये गए विमानों की कोई गारंटी देने से भी इनकार कर दिया। संक्षेप में, उन्होंने मूल कॉन्ट्रैक्ट के प्रत्येक खंड को तोड़ दिया। अंबानी–जो कि शायद भाजपा के सबसे अधिक नेताओं के मालिक है, और इसलिए कहा जाता है की वह सरकार का स्वामित्व भी करते है, अब वो दसॉ के पार्टनर थे। अब दसॉ–अंबानी ने सौदे से अधिक लाभ लेने के लिए भारतीय सरकार में दबाव डालना शुरू कर दिया। अम्बानी के दबाव डालने की प्रक्रिया के बारे में जानने के लिए अंबानी के गैस घोटाले के बारे में पढ़ें।[12]
मोदी–अंबानी का अपवित्र गठजोड़ अब कोई रहस्य नहीं है। इसलिए जैसे ही मोदी को अवसर मिला, उन्होंने इस समझौते की पुष्टि कर दी जो की भारत के लिए हानिकारक और दसॉ–अंबानी के लिए सबसे अधिक लाभदायक था। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि शायद मोदी ने बिना औपचारिक कैबिनेट की मंजूरी के अकेले इस निर्णय को लिया। रक्षा मंत्री पर्रिकर घोषणा के 48 घंटे पहले खुद इस सौदे के बारे में नहीं जानते थे।
ऐसा कहा गया है कि मोदी के करीबी शीर्ष नेता जेटली, पर्रिकर आदि भी मोदी के सौदे से खुश नहीं थे। भाजपा के नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने सार्वजनिक रूप से इस सौदे को रोकने के लिए प्रधान मंत्री मोदी को एक पत्र लिखने की बात कही थी।[13]उन्होंने सौदे को रोकने के लिए एक जनहित याचिका दायर करने की भी धमकी दी थी। लेकिन एक राज्यसभा सीट ने उन्हें भी चुप कर दिया। कोई भी इसके बारे में बात नहीं कर रहा है, इनमे हैरानी की कोई बात नही है क्योंकि अधिकांश भारतीय मीडिया खुद अम्बानी की कंपनी नेटवर्क-18 मोदी के चियरलीडर्स की तरह काम कर रहा है। लेकिन कब तक?
घोटाला सिर्फ राफेल विमानों को खरीदने में नहीं है, घोटाला तो यह है की इन विमानों को ज्यादा कीमत पर खरीदा जा रहा है और वह भी उन शर्तों के साथ है जो भारत के लिए पूरी तरह से अनुचित हैं। मोदी द्वारा किये गए इस सौदे में समझौते के सभी मूल उद्देश्यों को ही खत्म कर दिया गया है। भारत को सिर्फ विमानों की जरूरत नहीं है, हमे आने वाले समय के लिए तकनीकी क्षमता में आत्मनिर्भर होने की आवश्यकता भी है।
घोटाला छुपाने के लिए बनाए जा रहे बहाने
बेशक, आपको ट्विटर, फेसबुक, क्वोरा पर, वास्तव में पूरे इंटरनेट पर फ़र्ज़ी प्रचारकों की पूरी टीमें मिलेगी जो आपको अपनी झूठी कहानियो और झूठे तथ्यों के जरिये यह बताएंगे कि कैसे ये भारत के लिए एक सुनहरा सौदा है, लेकिन तथ्य यह है कि यह एकदम घटिया सौदा है और भारत के खजाने को दसॉ–अंबानी की जेब में डालने का एक बड़ा घोटाला है। अनिल अंबानी को उन राफेल विमानों के स्पेयर पार्ट बनाने का कॉन्ट्रैक्ट तक मिल गया जो विमान अब तक बने भी नही है।[8]
भक्त तर्क देते है कि लगभग 10 से 12 अरब अमरीकी डॉलर का मूल सौदा मोदी के कार्यभार संभालने तक 20 अरब अमेरिकी डॉलर का हो गया था इसलिए मोदी ने इस समझौते को खत्म कर दिया। यह बात सरासर झूठ है। लागत में वृद्धि केवल 2 तरीके है।
1: मुद्रास्फीति, मूल डील में जिसके लिए 3.9% वार्षिक फ्लैट दर की सहमति व्यक्त की गई थी।
2: दसॉ ने कॉन्ट्रैक्ट का उल्लंघन किया था।
3.9% की मुद्रास्फीति सूचकांक की फ्लैट दरों के साथ 81 मिलियन अमेरिकी डॉलर का जेट कैसे 2-3 साल में 243 मिलियन अमेरिकी डॉलर का हो गया? कैसे? जादू से? यह एक घोटाला है, साफ़ ज़ाहिर है कि इस “जादू” का नाम अंबानी है। दसॉ के कॉन्ट्रैक्ट जीतने के तुरंत बाद, अंबानी ने दसॉ के साथ भागीदारी कर ली। मूल सौदे को खत्म करने का कोई कारण नहीं था, सिवाय इसके की मूल सौदे में अंबानी के लिए कोई लाभ नहीं दिख रहा था। अंबानी–दसॉ ने भागीदारी करते ही गंदे खेल खेलना शुरू कर दिया जब तक कि मोदी इस खेल में नहीं आए और उन्होंने मूल सौदे को खत्म ना कर दिया और अंबानी संस्करण वाले सौदे की घोषणा की। मूल सौदे में अतिरिक्त लघु अनुकूलन जोड़े गए थे ताकि दोनों सौदों की तुलना सीधे तौर पर नहीं की जा सकें और मोदी के फ़र्ज़ी प्रपोगेंडा विभाग इन छोटे बदलावों का इस्तेमाल करके लोगों को बेवकूफ बना सके और कीमत का $81 मिलियन से $243 मिलियन प्रति विमान वह भी बिना तकनीकी हस्तांतरण के को सही ठहरा सके। इसलिए मूल सौदे को समझने और उसे खत्म करने और नए सौदे की विस्तार जानकरी के लिए एक श्वेत पत्र लाना आवश्यक है।
बोफोर्स सौदे का कथित घोटाला सिर्फ 64 करोड़ का था, जबकि यह राफेल सौदा तो 59,000 करोड़ रुपये का है। फिर भी आज भी आपको गोदी मीडिया के चाटुकार पत्रकार बोफोर्स के बारे में गड़े मुर्दे उखाड़ते दिख जाते हैं, और इस सौदे पर चुप्पी बनी हुई है, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है, इसके बारे में जरा सोचिये।
भक्त तर्क देते है कि मोदी के सौदे में जेट भारतीय इलाकों के लिए अपग्रेड किए गए हैं और मूल सौदा में जेट बेसिक मॉडल के थे, इसलिए मूल्य में 3 गुना वृद्घि उचित है। पहली बात ये की अभी भी राफेल भारतीय इलाके के लिए नहीं बनाये जा रहे हैं। दसॉ को कॉन्ट्रैक्ट मिला ही इसलिए था क्योंकि राफेल भारतीय इलाके के लिए सर्वश्रेष्ठ था. और दूसरी बात तथाकथित अपग्रेड प्रति विमान $10 मिलियन से अधिक नहीं हैं। तो क्या यह $81 मिलियन से $243 मिलियन प्रति विमान की लागत में वृद्धि का औचित्य सिद्ध करता है? उदाहरण के लिए, प्रति जेट, मिटीओर मिसाइल इंटिग्रेशन की कीमत $2 मिलियन से भी कम है (मिसाइल की कीमत खुद 2.1 मिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति अतरिक्त पीस) है, हेलमेट माउंटेड डिस्प्ले सिस्टम (एचडीएमएस) इजरायल के एलबिट द्वारा बनाये गये हैं जो $ 0.4 मिलियन डॉलर के है। तो हम वही बेसिक मॉडल कुछ छोटे अपग्रेड के साथ मूल लागत से तीन गुना ज्यादा दामो पर खरीद रहे है। यह तो खुल्ली लूट है। आपकी जानकारी के लिए बता दे कि मार्च 2015 में, मोदी की पूंजीवादी साथी अदानी ने इजरायल की अलबिट कंपनी के साथ साझेदारी की है। हेलमेट माउंटेड डिस्प्ले सिस्टम (एचडीएमएस) को ही फिट करने में लगभग 1.9 अरब डॉलर का खर्चा बताया जा रहा है, यानी की लगभग ५० मिलियन डॉलर प्रति विमान? मोदी जी द्वारा किये गये इस सौदे में उनके सब मित्रों लिए कुछ ना कुछ है।[14]
भक्त तर्क देते है कि HAL हमारी अपनी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में राफेल बनाने की लिए कोई दक्षता/क्षमता नहीं थी। दसॉ HAL के साथ साझेदारी करने में सहज नहीं था। तो क्या यह सौदा डसॉल्ट के आराम को देखते हुए किया गया था? दसॉ ने 126 विमानों को उपलब्ध कराने के टेंडर लगभग 10 से 12 बिलियन डॉलर में जीता था जिसमे उसे 50% ओफ़्सेट के साथ 108 विमान भारत में तकनीकी हस्तांतरण के माध्यम से बनाने थे। सौदा यही था और भारत को यही मांग (समान लागत पर, 3.9% मुद्रास्फीति सूचकांक के फ्लैट दर के अनुसार) करनी चाहिए थी या कॉन्ट्रैक्ट के उल्लंघन और भारत का समय बर्बाद करने के लिए दसॉ पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए था। दसॉ की हालत इतनी खस्ता होने के बावजूद हम ही उसकी हेकड़ी के सामने क्यों झुक गए? प्रधानमंत्री मोदी ने मूल सौदे से पीछे हटने के बाद भी दसॉ के साथ सौदा क्यों किया ? अंबानी पर इतना विश्वाश? वैसे भी, तथ्य यह है कि HAL ने अम्बानी और रिलायंस के मुकाबले कहीं अधिक विमान बनाये हैं जो भारत के लिए उड़े हैं और लड़ाईयाँ भी जीते हैं । क्या आप लोग भक्तों द्वारा अंबानी–मोदी–अदानी के घोटालों को देशभक्ति के रूप में दिखाये जाने से अभी तक तंग नहीं आ चुके हैं? क्या आप अंबानियों द्वारा बनाये गए विमानों या स्पेयर पार्ट्स पर भरोसा करेंगे?
भक्तों का तर्क है कि मोदी के कारण ही भारत मे 50% ऑफसेट (कंपनियों द्वारा भारत मे पुनःनिवेश जो राफेल के लिए पुर्जे बनाएगी) संभव हो पाया। जबकि न केवल यह मूल सौदे में भी था,बल्कि सिर्फ स्पेयर हिस्सों की बजाय, भारत में प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के माध्यम से 108 जेट विमानों का निर्माण भी किया जाना था। जो की असीम नौकरियाँ और व्यापार के मौके उत्पन्न करता। तथ्य यह है कि 2005 के बाद से भारत की नीति रही है कि जो भी रक्षा सौदा 300 करोड़ से अधिक का होगा उसमें ऑफसेट पुनःनिवेश का खंड हर रक्षा सौदे का हिस्सा होगा। इस विशिष्ट सौदे में, पहले से ही 50% ऑफसेट था। मोदी ने यह 50% से बड़ा कर 100% या 51% नही किया था। आपको 50% ऑफसेट क्लॉज के लिए किसी का धन्यवाद करना है तो डॉ मनमोहन सिंह का करिए। मोदी का इसके साथ कोई लेना देना नही है। मोदी राफेल को मूल लागत से 3 गुना ज्यादा दाम (प्रति विमान $ 81मिलियन बनाम वर्तमान $243 मिलियन) पर खरीद रहे हैं। तो 50% ऑफसेट के बाद भी, हम विमानों को 1.5 गुना (50%) ज्यादा महँगा खरीद रहे है।
इसके अलावा, यदि मूल सौदे की हिसाब से 36 विमानों की जगह 126 विमानों के स्पेयर पार्ट्स का निर्माण भारत मे किया जाता तो क्या ऑफसेट 3 गुना अधिक नौकरियों और व्यवसाय पैदा नही करता? [15] भक्तों मोदी भक्ति का नशा कम करो और गणित पढ़ो।
भक्तों का तर्क है कि मोदी के सौदे में, दसॉ 25 (36 विमानों का 70%) विमानों की लड़ाई के हालात की तैयारी सुनिश्चित करवाएगा। लेकिन यह गारंटी तो दसॉ ने मूल सौदे में भी दी थी, उसमे उसे 13 ( 18 विमानों का 70%) जो 18 विमान रेडी टू फ्लाई हालत में भारत को दे रहा था उन विमानों की लड़ाई के हालात की तैयारी सुनिश्चित करवाना था यह मानक गारंटी है जो दसॉ सभी को ऑफर करता है, कुछ विशेष नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत HAL द्वारा भारत मे बनाए जाने वाले 108 विमानों के लिए भी इस गारंटी को लेकर बातचीत कर रहा था। और मोदी ने सारी चीज़ों को एक झटके में खत्म कर दिया, और अब हम सिर्फ 12 युद्ध के लिए तैयार विमानों और कुल 36 विमानों के लिए 3 गुना ज्यादा दामो का भुगतान कर रहे हैं।
भक्त आप पर राफेल जेट विमानों की खरीद को संदेह के घेरे में खड़े करने के लिए सेना का मनोबल गिराने जैसे कई आरोप लगाएंगे। इस समझौते के विपरीत मूल सौदे में 18 जेट + टेक्नोलॉजी ट्रांसफर, भारत में 108 राफेल जेट का निर्माण करके भारतीयों को सशक्त करना जैसे कई और फायदे थे। हमें अपने टैक्स के पैसो को जो कि सेना और राष्ट्र के लिए है उसे दसॉ–अंबानी की जेब में जाने से रोकना होगा।
भक्तों का तर्क है कि अगर वास्तव में कोई राफेल घोटाला है तो कांग्रेस ने इस मुद्दे को क्यों नही उठाया है? क्या आप कांग्रेस पर विश्वास करेंगे अगर वह इस मुद्दे को उठाएंगे? प्रिय भक्तों, तथ्य तुम्हारी आंखों के सामने हैं अपने दिमाग का इस्तेमाल करो। मोदी मामूली रूप से बेहतर विमानों को असल दाम से 3 गुना ज्यादा दामो में खरीद रहा है। अंबानी बंधू जो दोनों दसॉ के सहयोगी हैं उनको फायदा पहुचाने के लिए टेक्नोलॉजी ट्रांसफर को भी मोदी जी ने हाथो से जाने दिया। कांग्रेस भी अंबानी–अदानी की जेब में है। यही कारण है कि आपने कांग्रेस के बजाय मोदी को वोट दिया था, कुछ याद आया?
भक्त आपको चुनौती देंगे कि अगर वास्तव में यह घोटाले है तो एक जनहित याचिका दायर करें। सच में? सिर्फ उत्सुकता में पूछ रहा हु कि आपने या मोदी जी ने कांग्रेस के घोटालों पर कितनी जनहित याचिकाएं दायर की थी? शून्य। तो क्या कांग्रेस ने कोई घोटाला ही नहीं किया?
भक्त आप पर रक्षा सौदों की जटिलताओं को न समझने का आरोप लगाएंगे। अगर ऐसा है तो दसॉ सौदे पर प्रधानमंत्री से राष्ट्रीय हित में एक श्वेत पत्र की मांग करें, जिसमें सौदे में शामिल हर इकाई की प्रोफाइल शामिल हो। निश्चित रूप से इस सौदे पर एक श्वेत पत्र सब कुछ स्पष्ट कर देगा, क्या देशहित में यह मांग करना बहुत ज्यादा है? नही।
भक्त तर्क देंगे कि अब दसॉ रिलायंस के साथ जॉइंट वेंचर के माध्यम से भारत मे टेक्नोलॉजी ट्रासफर कर रहा है। वास्तव में? क्या भारत का करदाता राफेल इसलिए खरीद रहा है ताकि रिलायंस को इसकी तकनीक मिल जाए? यह लेख यही बात कहता है कि यह सौदा अंबानी और पूंजीपतियोे के हित के लिए है भारत के हित के लिए नहीं।
निष्कर्ष
जैसा कि लेख में उल्लेखित है, मोदी का फ़र्ज़ी प्रचार तंत्र राफेल घोटाले को छुपाने के लिए झूठ फैला रहा है। हास्यास्पद यह है कि वे सिर्फ उसी झूठ को दोहरा रहे हैं जिसका पहले से ही भंडा फोड़ हो चुका है। मैं राफेल डील पर मोदी के फ़र्ज़ी प्रचार तंत्र विभाग के हर जूठे प्रचार अभियान का भंडा फोड़ने के लिए प्रतिबद्ध हूं। जितना वो झूठ बोलेंगे, हम इस पर उतना ही शोध करके उनका भंडाफोड़ करते रहेंगे, और यह लेख और बेहतर होता जाएगा।
आपको मुझ पर विश्वास करने की कोई जरूरत नही है पर आपके सामने तथ्य है, आपके पास दिमाग है, दोनों का उपयोग करें।
जय हिंद
Excellent
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ye ghotala nahi maha ghotala hai modi chokedar nahi chor hai.
निष्कर्ष
जैसा कि लेख में उल्लेखित है, मोदी का फ़र्ज़ी प्रचार तंत्र राफेल घोटाले को छुपाने के लिए झूठ फैला रहा है। हास्यास्पद यह है कि वे सिर्फ उसी झूठ को दोहरा रहे हैं जिसका पहले से ही भंडा फोड़ हो चुका है। मैं राफेल डील पर मोदी के फ़र्ज़ी प्रचार तंत्र विभाग के हर जूठे प्रचार अभियान का भंडा फोड़ने के लिए प्रतिबद्ध हूं। जितना वो झूठ बोलेंगे, हम इस पर उतना ही शोध करके उनका भंडाफोड़ करते रहेंगे, और यह लेख और बेहतर होता जाएगा।
आपको मुझ पर विश्वास करने की कोई जरूरत नही है पर आपके सामने तथ्य है, आपके पास दिमाग है, दोनों का उपयोग करें।
Hme aapki ye bat bhut achchhi lgi