दिमाग पर एक सर्जिकल स्ट्राइक
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इस सरकार की सभी चीजों की तरह, एक सेना के आपरेशन भी मोदी के प्रचार के लिए एक उपकरण बन गया है। मीडिया सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में बढ़ा चढ़ा कर कुछ अतिशयोक्ति भरे दावे कर रही है, और इस प्रक्रिया में भारतीय सेना के अतीत की वीरता और विश्वसनीयता को चोट पहुँची है।
जिज्ञासा ने देशभक्त को मार डाला
18 सितम्बर 2016 को उरी में भारतीय सेना के शिविर पर हुए हमले के बाद से, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उम्मीदों के वजन में दब चुके थे. जनता में ये उम्मीदें उन्होंने खुद ही 2014 से पहले एक विपक्षी नेता के रूप में जोशीले बयानबाजी की वजह से बनायीं थीं. “डूब मारो मनमोहन सिंह” के पिछले ताने, और “56 इंच छाती” या “पाकिस्तान से उसी की भाषा में बात करने” का बड़बोलापन अब उनके लिए मुसीबत साबित हो रहा था । यहां तक कि उनके कट्टर समर्थकों ने सोशल मीडिया पर मोहभंग के संदेशों को पोस्ट करने शुरू कर दिया था। जब प्रधानमंत्री मोदी ने हर्षवर्धन नामक एक युवा, जो इन हमलों के बाद और अधिक पढाई करने लगा था, का किस्सा सुनाया, या एक साथ गरीबी के खिलाफ युद्ध लड़ने का ज़िक्र किया, तो उनके सबसे उत्साही भक्त भी इससे खासे निराश और नाराज़ होने लगे।
हालात श्री मोदी के लिए हाथ से फिसलने लगे थे। उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे प्रमुख राज्यों के महत्वपूर्ण चुनाव सर पर थे, और उनके समर्थकों के भीतर इस तरह के मायूसी का हाल खत्म करना, और मनोबल को उठाने के लिए कुछ करना ज़रूरी हो गया था। परमाणु हथियारों से लैस एक देश के साथ एक युद्ध हमेशा एक बहुत ही जोखिम भरा कदम होता है। अगर एक बार जब आप एक अहम आक्रामक कार्रवाई शुरू कर देते हैं, उसके बाद इस बात की कोई गारंटी नहीं है की युद्ध को सीमित और नियंत्रित किया जा सकता है।
तो आखिर आप कैसे, परमाणु हथियारों से लैस दुश्मन को बिना समुचित तौर पर भड़काये- अपने घरेलू समर्थकों को शांत कर सकते हैं?
डी.जी.एम.ओ. वक्तव्य
29 सितंबर 2016 की सुबह, सैन्य अभियान महानिदेशक (डी.जी.एम.ओ.) लेफ्टिनेंट जनरल रणबीर सिंह ने नई दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन में एक संक्षिप्त बयान जारी किया[1]
कल हमें कुछ आतंकवादी टीमों के बारे में बहुत विश्वसनीय और विशिष्ट जानकारी मिली जिन्होंने खुद को नियंत्रण रेखा के साथ के लांच पैडो पर तैनात किया था, और ये घुसपैठ करके जम्मू एवं कश्मीर में और हमारे देश में विभिन्न अन्य महानगरों में और आतंकवादी हमलों को अंजाम देने का इरादा रखते थे, कल रात भारतीय सेना ने इन लांच पैड पर एक सर्जिकल स्ट्राइक की।
मूल रूप इस कार्रवाई का उद्देश्य इस पर केंद्रित था कि ये आतंकवादी घुसपैठ करने के अपने इरादे में सफल नहीं हों, और कोई विनाश या हमारे देश के नागरिकों के जीवन को खतरे में डाल ना सकें।
इन आतंकवादी विरोधी आपरेशनों के दौरान आतंकवादियों और उन्हें समर्थन करने वाले लोगों को भारी नुक्सान पहुँचा है।
आतंकवादियों को निष्क्रिय करने के उद्देश्य से शुरू ये आपरेशन अब पूरा हो गया है।अब आगे इस आपरेशन को जारी रखने के लिए हमारी कोई योजना नहीं है
डी.जी.एम.ओ. बयान में हमलों के बारे में और कुछ भी नहीं कहा गया था. हालांकि डीजीएमओ इस आपरेशन की घोषणा कर डालने का अभूतपूर्व कदम उठाया था, उन्होंने अपनी ब्रीफिंग के बाद पत्रकारों से कोई प्रश्न नहीं लिया। जानकारी के लिए भूख, और आधिकारिक तौर पर प्रदान की जानकारी के बीच एक गहरी खाई थी। मजे की बात है, पाकिस्तानी सेना ने असामान्य रूप से, किसी भी तरह के सर्जिकल स्ट्राइक होने से पूरी तरह से इंकार कर दिया था, और इसे एक रोज़मर्रा वाली सीमा पार बमबारी बता कर ज्यादा तूल नहीं दिया था।
भारतीय लोग इसका ब्यौरा सुनने के लिए भूखे थे, लेकिन ऑपरेशन के बारे में सरकारी घोषणाओं के अभाव के कारण वो महाराज धृतराष्ट्र की तरह अंधा महसूस कर रहे थे। खैर, आधुनिक युग के संजय यानी सामाजिक मीडिया, ने जल्द ही उन्हें ज्ञान देना शुरू कर दिया।
जल्द ही मेरे व्हाट्सएप्प और फेसबुक पर सनसनीखेज “विवरण” भरे सन्देश आने लगे – कैसे एमआई-17 हेलीकाप्टर पर 25-150 पैरा कमांडो नियंत्रण रेखा (एलओसी) के अंदर 1-3 किमी अंदर पहुंचे, और कम से कम 38-50 आतंकवादियों को मार डाला (यहां तक कि एक संदेश के अनुसार 119)। इन संदेशों में आम तौर पर ये दावा किया गया था की इनका श्रोत “बीबीसी समाचार फ्लैश” या “एक दोस्त है जो भारतीय सेना में है उसने कन्फर्म किया है”के साथ रहती थी, और इनमे कुछ सैन्य विवरण (“हाहो (HAHO) पैराशूट”, “कार्ल गुस्ताफ” बंदूकों) भी थे। या तो उन्हें लिखने वाला व्यक्ति वास्तव में सेना के साथ था और ऑपरेशन का वर्णन कर रहा था, या यह एक बहुत ही चालाक प्रोपगैंडा करने वाला था, जो इस प्रचार में कुछ भारी भरकम शब्दों के साथ भोली भाली जनता को बेवकूफ बना रहा था।
आज भारत में बहुत से लोग यही मानते हैं कि उन्हें व्हाट्सएप्प पर जो सन्देश मिले, वही सच थे।
व्हाट्सएप्प पर, मुझे भी इन आतंकवादियों की लाशों को बड़े सरीके से रखा एक चित्र मिला। कुछ सवाल तुरंत मेरे जिज्ञासु मन में आये।
- जब हमें यह बताया जा रहा है कि आपरेशन आधी रात और 4 बजे के बीच हुआ,तो इतना उजाला और इस तरह की परछाईं क्यों दिख रही है?
- हमारे कमांडो आतंकवादियों की लाशों और उनके हथियार को लाइन रख कर तस्वीर लेने में क्यों लगे हुए हैं, जबकि उनका लक्ष्य उन्हें मार कर तुरंत वापस बेस पर लौटने का रहा होगा?
मैंने गूगल इमेज सर्च पर तस्वीर की खोज की, और पाया कि वास्तव में ये पाकिस्तान में पेशावर का एक पुराना फोटो था, जिसको फ़र्ज़ी तौर पर फैलाया जा रहा था।
इस चित्र के अलावा, मेरे दिमाग में कुछ और प्रश्न भी थे
- जब लक्ष्य केवल 1-3 किमी दूर हैं, तो हमारी सेना एल.ओ.सी. के पार हेलीकाप्टर भेजने का जोखिम क्यों ले रही हैं? पैदल क्यों नहीं जाएँ? और भी बेहतर है, क्यों न हमारे 155 मिमी होविट्ज़र बंदूकों, जिनकी क्षमता 40 किलोमीटर की है, के साथ इमारत को नेस्तनाबूद कर दिया जाए, ।
- ध्यान दें कि नीलम घाटी तीतवाल , दुढ़नियाल और लीपा के इलाके, जहाँ कथित तौर पर हमला किया गया, ऐसी घाटियों में हैं, जहां भारत आसपास के पहाड़ों में से कुछ को नियंत्रित करता है, और इन कस्बों के घर भारतीय बंदूकों की रेंज में हैं, और उनके द्वारा, सीमा के भीतर रहते हुए ही, उड़ाए जा सकते हैं।
- अगर हमारे पास इन आतंकवादियों द्वारा सीमा को पार करने की योजना के बारे में इस तरह के एक विश्वसनीय और विशिष्ट खुफिया सूचना थी, और हम उनकी हर हरकत को देख रहे थे, तो ठीक है, क्यों इतना जोखिम लिया जाए, और उनमें से कुछ समाप्त करने के लिए एलओसी के पार फ़ौज को भेजा जाए। क्यों ना बस उनके लिए जाल बिछाया जाए, उनके द्वारा एलओसी पार करने का इंतजार किया जाए, और उनमे से सभी को हमारे क्षेत्र में आने के बाद या तो पकड़ लिया जाए, या मार ही दिया जाए?
क्या सिर्फ प्रचार और सुर्खियों में नेताओं को हीरो बनाने की खातिर हमारी सेना को एक कम लाभकारी, जोखिम भरे, और विसंगत कार्रवाई करने के लिए मजबूर किया गया है?
मुझे अपने एक फौजी अफसर दोस्त की भी याद आई, जो लगभग 15 साल पहले कश्मीर में एलओसी पर नियुक्त थे, और अपने अनुभव एक बार मुझे बताया था । किस प्रकार उनके अंतर्गत सेवारत एक गोरखा एलओसी को पार कर गया था, ना केवल कुछ पाकिस्तानी सैनिकों को मार आया था, बल्कि यहां तक कि उनके पोस्ट से एक बड़ी मशीन गन भी वापस ले आया था। कई लेख हमें ये दर्शाते हैं कि एलओसी पर यह एक आम बात थी, और मेरा दोस्त यह सब बहुत ज्यादा बढ़ा चढ़ा कर नहीं बता रहा था।[2]
मैं सोशल मीडिया पर अपने दोस्त की इस सीमा पार छापे के किस्से का ज़िक्र किया। इस पोस्ट में गुरखा वीरता और की बहादुरी की तारीफ की गई थी। हाँ मैंने ये ज़रूर लिखा कि इस पिछले ऑपरेशन को लेकर मीडिया में इस “सर्जिकल स्ट्राइक” की तरह इतना प्रचार नहीं किया गया था।
मुझे तुरंत ही बहुत भावुक और गुस्से भरी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा – “आप हमारी सेना का अपमान कर रहे हैं”।
मध्यम वर्ग भारतीयों को अंधराष्ट्रीयता का एक तर्कहीन उत्साह ने घेर लिया था। अंत में, हमें हमारा “रैम्बो” मिल गया था! उनकी आँखों में, मैंने यह दावा करके – कि हमारे पास पहले से ही एक “रैम्बो” मैजूद था, मैं घोर पाप कर डाला था, किसी तरह मैंने आज के रेम्बो पर सवाल उठाने का साहस कर दिया था। मोदी भक्तों के दावों से तो ऐसा लग रहा था कि भारतीय फौज ने इससे पहले चूड़ियाँ पहन रखीं थीं!
बाकी वार्तालाप को कुछ इस प्रकार संक्षेप में बताया जा सकता है:
मैं: “अरे .. लेकिन क्या इसका मतलब यह नहीं है कि अतीत में हमारी सेना की वीरता को नीचा दिखाकर, वास्तव में आप खुद सेना का अपमान कर रहे हैं?
”
भक्त: “यह पहली बार है, जब हमने पाकिस्तान को जवाब दिया है”
मैं: “यह सही नहीं है, इंदिरा गांधी पाकिस्तान 1971 में दो भागों में विभाजित कर दिया था. इसके अलावा जनवरी 2014 से सेनाध्यक्ष के बयान को देखें, तब हमारी सेना ने 10 पाकिस्तानी सैनिकों को मार डाला था, और तब तो पाकिस्तानी खुद हत्या होने को स्वीकार कर, उसके बारे में शिकायत कर रहे थे!”
[3]
भक्त: “ठीक है, हो सकता है हमने पहले भी जवाब दिया है, लेकिन सिर्फ फायरिंग से। यह पहली बार हुआ है, की हम एलओसी को पार किये हैं।”
मैं: “सिर काटने के उदाहरण की जाँच करें, स्पष्ट रूप से हम पहले भी एलओसी के पार कदम रख चुके है।”
[4]
भक्त: “लेकिन वो सब मात्र मामूली हमले थे, वोसर्जिकल स्ट्राइक्स नहीं थे”
कुछ भक्त, जिन्हें मेरे जैसा एक जिज्ञासु रिश्तेदार या दोस्त होने के दुर्भाग्य प्राप्त था, के लिए, स्थिति अगले दिन के भीतर काफी बदल गयी। यह उभरा कि 28 सितंबर के इस आपरेशन और इससे पहले के आपरेशनों में मुख्य अंतर भारत सरकार की इसके बारे में बात करने के लिए असामान्य उत्सुकता थी ।
सामाजिक मीडिया पर इन चर्चाओं में, मुझे कुछ ऐसा दिखा कि ज्यादातर मध्यम वर्ग भारतीयों को अचानक ही सेना सम्बन्धी चीज़ों की बारीकियों की बहुत गहरी जानकारी हो गयी थी। लग रहा था जैसे हर कोई “कार्ल गुस्ताफ” बंदूकों, एमआई-17, “घातक कमांडो” दस्ते आदि के बारे में जानता था, ये भी जानता था की इन हमलों को कैसे अंजाम दिया गया, कैसे वे पहले से अलग थे। मोदी के प्रचार तंत्र ने डी.जी.एम.ओ. बयान से विशेष रूप से दो शब्दों – “सर्जिकल स्ट्राइक्स” – को एकदम पकड़ लिया था, हर कोई इसी की बात कर रहा था।
अब, विकिपीडिया के अनुसार,
“एक सर्जिकल स्ट्राइक्स एक ऐसे सैन्य हमले को कहा जाता है, जिसमें नुक्सान, तबाही या क्षति सिर्फ लक्ष्य पर हो, और आसपास की संरचनाओं, वाहनों, भवनों, या आम जनता के बुनियादी ढांचे को कम से कम नुक्सान या संपार्श्विक क्षति (collateral damage) पहुँचे । “
यानी की, इस मामले में एलओसी पार विशेष इमारतों (वो लॉन्चपैड जहां आतंकवादी पहले एकत्र हुए) पर हम सर्जिकल स्ट्राइक्स तब करेंगे, जब हम सिर्फ और सिर्फ उन्हीं इमारतों को नुक्सान पहुँचाना चाहते हों, और आस पास के पाकिस्तानी नागरिकों या किसी भी पाकिस्तानी सेनिक को कोई नुक्सान पहुंचाए बिना ये काम करना चाहते हों।
वास्तव में ये एक बहुत ही महान काम है । मैं अपने पाकिस्तानी भाइयों के प्रति अचानक इतना मानवतावाद दिखाने के लिए भारतीय सेना को सलाम करता हूँ।
लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक्स क्यों की जाए ? इसे करने का औचित्य आखिर क्या है?
क्या भारतीय और पाकिस्तानी सेनाएं, दोनों ही एलओसी के साथ एक-दूसरे के कस्बों पर अक्सर बमबारी और गोलाबारी नहीं करती रहतीं? जिनसे कारण लगातार नागरिकों की मौतें होती रहती हैं? साथ ही क्या इस रात को कमांडो सैनिकों के लिए एक कवर फायर नहीं प्रदान की गयी, (जिसमे 2 पाकिस्तानी सैनिकों की मृत्यु भी हुई)? हमारी फ़ौज भारत में ऑपरेशन करते समय भी कभी कभार अगल बगल के इलाके में नुकसान पहुँचा देती है, तो फिर कुछ पाकिस्तानी नागरिकों को गलती से नुक्सान न पहुँचे, वे इस बारे में इतने चिंतित क्यों होंगे?
मुझे ये बात भी अभी तक समझ में नहीं आ रही थी, कि सिर्फ चंद अज्ञात, बेनाम आतंकवादियों को मारने के लिए हम अपने सबसे ख़ास कमांडो सैनिकों को सीमा पार भेजने का जोखिम क्यों उठा रहे थे ? क्या वहाँ उनके बीच कोई बहुत प्रमुख आतंकवादी सरगना मौजूद था? यदि हाँ, तो हर बात पर डंका बजाने वाली यह सरकार किसी ऐसे लक्ष्य की हत्या के बारे में चुप तो नहीं ही रहती? और यदि कोई ऐसा आतंकवादी सरगना वाक़ई मौजूद था, लॉन्चपैड से एलओसी पार करने का इरादा रखता था, और हम उस पर लगातार नज़र भी रखे हुए थे, तो ऐसे सरगने या विशेष लक्ष्य को, जब वह भारत में प्रवेश करता है, तब पूरी गारंटी के साथ अपने नियंत्रण वाले इलाके में घुसने के बाद क्यों ना पकड़ा या मारा जाए?
इसके अलावा, यदि हमारे पास आतंकवादियों की एलओसी पार करने की योजना का खुफिया तरीके से पता लगाने, और उनकी गतिविधि ट्रैक करने की इतनी जबरजस्त क्षमता है, (कुछ लोग सेटेलाइट से ट्रैक किये जाने की भी बात कर रहे थे) तो आखिर अब तक, इतने समय से हम क्या करते रहे हैं? हमने इन आतंकवादियों को उरी, और इससे पहले उन्हें पठानकोट, पंपोर आदि में कैसे एलओसी पार करने दे दिया?
मैंने अपने सवालों के जवाब को भारतीय मीडिया में खोजा। मुझे कोई भी ईमानदारी से सवाल उठाता हुआ नहीं दिखाई दिया, बस सिर्फ सोशल मीडिया से फैलाई जा रही जोशीली अंधराष्ट्रीयता ही दोहराई जाती हुई दिखाई पड़ी।
मुख्यधारा मीडिया में “सूत्रों” पर आधारित “लीक”
यहां तक कि मुख्यधारा के मीडिया में भी, ऑपरेशन के बारे में “तथ्य” केवल “विश्वस्त सूत्रों” द्वारा प्रदान जानकारी पर आधारित थे । “विश्वस्त सूत्रों” ने एनडीटीवी को बताया कि पूरा आपरेशन जमीनी सैन्य बलों और हेलीकाप्टर से पैरा कमांडो के साथ चलाया गया था। उधर न्यूज़-18 ने दावा किया पाकिस्तान के हवाई क्षेत्र का कोई उल्लंघन नहीं किया गया था, सैनिकों को एलओसी के भारतीय भाग में ही एक हेलिकॉप्टर द्वारा उतार दिया गया। इंडिया टुडे की रिपोर्ट थी कि पैरा कमांडो सैनिकों को एमआई-17 हेलिकॉप्टरों पर सवार होकर एलओसी पार करके पाक अधिकृत कश्मीर में 2-3 किलोमीटर भीतर भेज दिया गया था, और उन्होंने छह आतंकी शिविरों को नष्ट कर दिया था।[5]
कुछ दिनों के बाद, इस मामले का सबसे ज्यादा लोकप्रिय कहानी सामने आयी, इसे कई मीडिया घरानों द्वारा उनकी “एक्सक्लूसिव” रिपोर्ट बतायी गई, और इसमें कुछ विश्वसनीय अंदरूनी “सूत्रों” का हवाला देकर दावा किया कि:[6]
23 सितंबर से रात को, प्रधानमंत्री मोदी ने रायसीना हिल के साउथ ब्लॉक में सेना के टॉप सीक्रेट वॉर रूम का दौरा किया ।
26 सितंबर को राष्टीय सुरक्षा सलाहकार(एन.एस.ए) अजीत डोभाल ने तीन सेवा प्रमुखों और खुफिया सेवा प्रमुखों के साथ एक महत्वपूर्ण बैठक आयोजित की। 250 किमी के इलाके में एक साथ आठ हमले के लिए आपरेशनल विवरण को अंतिम रूप दिया गया।
पाकिस्तानी सेना के तीन डिवीजन द्वारा नियन्त्रित इलाके में भारतीय सेना के कमांडो द्वारा नियंत्रण रेखा के पार, 500 मीटर से लेकर तीन किलोमीटर की गहराई तक घुसपैठ करने लिए योजना तैयार की गई।
कार्यान्वयन: सितंबर 28-29
लगभग उसी समय, 30 पैरा कमांडो में से एक टीम को विशेष हाई ऊँचाई पैराशूट से गिराया गया। पाकिस्तानी रडार और सुनने वाले उपकरणों से बचने के उद्देश्य से पैराट्रूपर्स HAHO तकनीक का इस्तेमाल करते हुए जमीन से 35,000 फुट ऊपर से कूदे।
जीपीएस उपकरणों के साथ सुसज्जित कमांडो एकदम सटीक तरीके से ठीक अपने लक्ष्य, पीओके के अंदर एक आतंक लांच पैड के पास, पर उतरे। पाकिस्तानी सेना में बढ़ी हुई (रेड अलर्ट) सतर्कता के बावजूद, अन्य सात कमांडो टीमें भी अपने लक्ष्य तक बिना किसी के द्वारा भी पता चले पहुँच गए ।
जोर शोर आवाजों और एलओसी पर मची अफरा-तफरी की स्थिति में, भारतीय कमांडो बिना किसी चुनौती के वापस आ गए।
दुश्मन सैनिक अपने बंकरों की तरफ भागे, और विशेष बल की टीमों के लिए भारत की ओर पर लौटने के लिए रास्ता साफ़ हो गया। दुश्मन धोखे में आ गया। पाकिस्तान की सेना कोई सुराग भी नहीं मिला कि उन्हें क्या मार कर चला गया था।
ये साफ़ ज़ाहिर है, इस “स्रोत” को पीएमओ और एनएसए और शीर्ष गुप्त बैठकों की अंदर की जानकारी है, यहाँ तक की “सेना के टॉप सीक्रेट वॉर रूम” स्थान भी पता है, और ये उसने मीडिया को भी बता डाला है!
एलओसी के 500 मी अंदर गहराई तक के हमलों का होना मिलकुल मुमकिन है। इस तरह के छापे पहले भी नियमित रूप से होते आये हैं। कई विशेषज्ञों का दावा है कि पाकिस्तान की फॉरवर्ड चौकियां एलओसी के अंदर 1-2 किमी की औसत दूरी पीछे मौजूद हैं।[7]
तार्किक रूप से, पैरा कमांडो वाले जिस हमले का दावा किया गया है, वह 3 किमी गहराय वाले छापे के लिए रहा होगा। अब, ज़ाहिर बात है, अगर पैराट्रूपर्स का उपयोग दुश्मन रडार से बचने के लिए किया गया है, तो इनको गिराने वाले भी विमान की उड़ान भी एलओसी पर भारत के इलाके के भीतर ही रही होनी चाहिए। इसके अलावा, नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर एक “शांति काल नो-फ्लाई जोन” है, जिसके हिसाब से भारतीय विमान/हेलीकाप्टरों को एलओसी से कम से कम 1 किमी की दूरी बनानी पड़ेगी।[8] 35,000 फ़ीट (लगभग 10 किमी ) की ऊंचाई पर खुलने वाले एक पैराशूट को काफी असाधारण कौशल के साथ, 10 किमी की ऊंचाई से उतरने के साथ ही ज़मीन पर कम से कम 4 किमी की क्षैतिज दूरी भी तय करनी पड़ेगी। इस तरह से पैराशूट को एकदम सही निशाने पर ग्लाइड करना निश्चित रूप से असंभव नहीं है। पर इस मामले में, यह स्रोत ये दावा कर रहा है कि रात के अंधेरे में 30 पैराट्रूपर्स एक साथ ज़मीन पर एकदम सटीक स्थान (उम्मीद है आपको सर्जिकल स्ट्राइक्स की परिभाषा याद है?) पर उतरने में कामयाब रहे।[9]
हालांकि कई शुरुआती रिपोर्टों में पैराट्रूपर्स को गिराने के लिए हेलीकाप्टर के इस्तेमाल का दावा किया गया है, और विशेष रूप से एमआई-17 हेलीकाप्टर का उल्लेख किया गया है, मुझे इस पर शक है। मेरे विचार से, एमआई-17 के इस्तेमाल किये जाने की अधिक संभावना नहीं है। प्रत्येक एमआई -17 की 24 सैनिकों को ले जाने की क्षमता है, तो संभवतः 2 की आवश्यकता होगी। इससे भी बड़ी समस्या ये है की एक एमआई-17 हेलीकाप्टर के लिए, 35,000 फीट की इस ऊंचाई तक पहुँचना , उसकी सामान्य अधिकतम रेंज से अधिक है।
ज्यादा मुमकिन है, कि इस ऊंचाई से पैराट्रूपर्स को गिराने के लिए एक विमान का इस्तेमाल किया जाएगा। और एक दूसरे की पैराशूट की कैनोपी में टकराव से बचाने के लिए, हर पैराट्रूपर के कूदने के बीच कुछ अंतर रखने की आवश्यकता होगी। दुश्मन की नज़रों से बचे रहने के लिए, ये पैराट्रूपर्स कोई भी रोशनी का इस्तेमाल नहीं कर सके होंगे, और अंधेरे में टकराव का खतरा बढ़ जाता है, इसलिए बाहर निकलते समय और भी ज्यादा दूरी बनाये रखनी पड़ी होगी। ये विमान एलओसी से 1 किमी से अधिक दूरी पर उड़ान भर रहा हो, इसकी अधिक संभावना है। इन सभी परिस्थितियों में 30 कमांडो का एक साथ, रात के अँधेरे में, किसी गांव के पास, खुली जमीन के किसी छोटे से टुकड़े पर, सटीक लैंडिंग कर पाना और भी मुश्किल है।
चलिए हम ऊपर के चित्र को समझते हैं। हम इस तरह के एक ऑपरेशन के लिए दुश्मन द्वारा नियंत्रित इलाके में अपने पैराट्रूपर्स भेज रहे हैं, तो इसकी वजह यही हो सकती है, कि लक्ष्य जमीनी बलों द्वारा हमले के लिए मुश्किल है। उदाहरण के लिए, इस मामले में, हो सकता है यह लक्ष्य किसी दुश्मन नियंत्रण में किसी पहाड़ी की चोटी या किसी बाधा के पीछे छिपा हुआ होगा, जिसे जमीनी हमले से उड़ाना मुश्किल था। पाकिस्तानियों के कुछ मजबूत पोजीशन (जैसे की किसी पहाड़ी के ऊपर) मौजूद और अच्छी तरह से बचाव किये गए पोस्ट रास्ते पर रहे होंगे, जिनसे कि हम एक जमीनी हमले में भिड़ना नहीं चाहते हैं, और जिन्हें हम पैराट्रूपर्स के माध्यम से नाकाम करना चाहते हैं।
इसके अलावा, यदि यह लक्ष्य किसी गांव से बाहर एक गैर-आबादी वाले इलाके में मौजूद कोई झोपड़ी है, जिसके एकदम सटीक जीपीएस पोजीशन हमारे पास मौजूद थी, तो हम उसे दूरी से लांच किये गए किसी गाइडेड गोला बारूद से ही किसी भी अतिरिस्क संपार्श्विक क्षति के जोखिम के बिना ही उड़ा देते। इसलिए, अगर हम इस विकल्प का प्रयोग नहीं किया था, और इसके बजाय पास युद्ध के लिए पैराट्रूपर्स भेजने का फैसला किया है, यह संकेत मिलता है कि यह लॉन्चपैड किसी गांव या कस्बे में आबादी के अंदर स्थित रहा होगा।
35,000 फीट की ऊंचाई पर, हवा का तापमान -55 डिग्री सेंटीग्रेड तक हो जाता है। ऑक्सीजन का स्तर सामान्य कमरे की स्थिति का एक तिहाई होता है। तो, पैराशूट, बंदूकें और गोला बारूद के अलावा, इन पैराट्रूपर्स को इस कम तापमान जीवित रहने के लिए विशेष कपड़ों, ऑक्सीजन टैंक और मास्क भी डाल कर कूदना पड़ा होगा।
रिपोर्ट का दावा है पैराट्रूपर्स लक्ष्य के निकट उतरे, तो वे गांव के पास या भीतर पेड़ों से ख़ाली, कुछ जमीन पर इकट्ठे हुए होंगे। वे अपने पैराशूट आदि साथ वापस ले आये थे, या वे उन्हें छोड़ दिए (दूसरा विकल्प लिए जाने कीअधिक संभावना है, और यही तार्किक व समझदारी वाला विकल्प भी है)? यदि पाकिस्तानियों को नहीं पता था कि “उन्हें क्या मार कर चला गया” , तो अगली सुबह किसी गाँवाले का इन पैराशूट और ऑक्सीजन टैंक और सर्दियों के कपड़ों पर ध्यान कैसे नहीं गया?
35000 फुट की ऊंचाई से एक पैराशूट से उतरने में आम तौर पर लगभग 25 मिनट का समय लग जाएगा। पाकिस्तानी रेड-अलर्ट की स्थिति में थे, और उनके रडार एक विमान को एलओसी के करीब उड़ान लेते हुए ज़रूर देख लेंगे । नाईट विज़न उपकरण के साथ आसमान को देखटी हुईं बस एक जोड़ी पाकिस्तानी आँखों द्वारा इस पूरी योजना का पता लग सकता है, और इसको विफल किया जा सकता है। ऐसी हालत में पैराट्रूपर्स बेबस हो जाएँगे, और अपनी रक्षा नहीं कर पाएँगे।
जाहिर है, यह एक बहुत ही खतरनाक और जोखिम भरा आपरेशन था।
जब तक कि वहाँ लक्ष्य पर किसी बहुत बड़े आतंकवादी सरगने की मौजूदगी की कोई पुख़्ता और भरोसेमन्द खुफिया जानकारी न हो, क्या ऐसे ऑपरेशन करने का फैसला अक्लमंदी का काम था ? इस लॉन्चपैड पर कितने आतंकवादी थे कि उन्हें मारने के लिए 30 कमांडो भेजना जायज हुआ? क्या यह सब केवल प्रोपगैंडा के लिए किया गया, और दरसअल फौजी नज़रिये से, इसका कोई सेना के लिए कोई औचित्य नहीं था ? इस पैरा-ड्राप को आखिर क्यों किया गया था? क्या इसे किया भी गया था?
मुख्यधारा के मीडिया में इस तरह के सवाल कोई नहीं पूछ रहा था। मीडिया सरकार के लिए प्रवक्ता में बदल गया था। सरकार को आइना दिखाने, या कठिन सवाल पूछने के बजाय, यह चीखते हुए विपक्ष या समाज को भी कुछ सवाल पूछने से रोक रहा था । मीडिया में कहानियां ने केवल व्हाट्सएप्प संदेशों के अंधराष्ट्रीयता वाले मसाले को दोहराया था।
मीडिया में घूम रही इन कहानियों के बारे में केवल 2 संभावनायें हो सकती है। या तो कहानियाँ सच हैं है, और कोई सरकार की गोपनीय बातों को लीक कर रहा है, या कहानियाँ झूठी हैं , और सिर्फ घरेलू राजनीति के उद्देश्य से डोभाल और मोदी के प्रचार के लिए इन्हें चलाया जा रहा है।
मुझे अभी तक मीडिया को ये सब ब्यौरा लीक करने के लिए किसी भी सेना के अधिकारी या किसी भी एनएसए / पीएमओ स्टाफ के खिलाफ किसी कार्रवाई के बारे में कोई खबर नहीं मिली है।
मैंने यह भी पाया कि लोग, किसी भी विरोधाभासों पर गौर किये बिना, 2 तरह के बयान दे रहे थे।
वक्तव्य 1: यह देखो, फलां ने आपरेशन के पूरा अंदरूनी विवरण प्रकाशित किया है । कैसे और कहाँ एनएसए डोभाल की बैठक हुई, कैसे पैराट्रूपर्स HAHO पैराशूट का उपयोग करके कूदे, वाह!
वक्तव्य 2: आखिर हम अंतरराष्ट्रीय मीडिया में पाकिस्तानी दावे का मुकाबला क्यों करें? उससे आपरेशन का ब्यौरा सामने आ जाएगा! अगर बीबीसी या सीएनएन पाकिस्तानी दावों को ही छाप रहे हैं, और सही बता रहे हैं, तो इसपर ध्यान क्यों देना चाहिए ?
इन सभी वर्षों में पाकिस्तान की तरह, हम भारतीयों को भी अब अपनी सेना के बारे में, या यहाँ तक कि मीडिया पर सेना के बारे में किसी रिपोर्ट पर, सवाल उठाने की अनुमति नहीं रह गयी थी। सेना पर सवाल तो भूल हीजाइये , हम एक ऐसे देश में बदल गए थे राष्ट्र जहां कुछ पाकिस्तानी कलाकारों वापस भेजने की निरर्थकता और मूर्खता पर टिप्पणी करना भी अब एक विश्वासघाती देशद्रोही कार्य माना जाता था । मीडिया द्वारा घटनाओं के इस विचित्र संस्करण के बारे में प्रश्नों को उठाटी किसी भी आवाज़ को गुस्से से भरे चिल्लाने वाले टीवी एंकर, जिन्होंने मैक-कार्थीसम (McCarthysm) को एक जीवित प्रदर्शन कला बना डाला था, चिल्ला कर चुप कर रही थे, और धोखेबाज के रूप में चिह्नित कर रहे थे. ऐसे लोगों के लिए सोशल मीडिया पर ट्रॉल्स की लिंच-मॉब भीड़ उन्हें और परेशान करने के लिए प्रतीक्षा कर रही थी।
हमारा लोकतंत्र जल्दी से एक भीड़तंत्र और मूर्खतंत्र में बदल गया था। मैं अचानक ही एक “देशद्रोही” बन गया था। आपका स्वागत है इस अंधेर नगरी में ।
इतने सारे भारतीय “देशद्रोही” कैसे हो गए?
एक नव घोषित देशद्रोही के रूप में, मेरे मन पुराने दिनों को याद करने लगा – कोई लौटा दे मेरे “बुरे दिन”।
मैं याद करने लगा कि बस कुछ ही साल पहले भारत पर किसी भी आतंकवादी हमले, उदाहरण के लिए मुंबई पर 2008 में हुए हमलों के दौरान, के दौरान स्थिति कैसी हुआ करती थी।
मुझे याद आया कि किस प्रकार हम भारतीय हमेशा एक साथ खड़े हुआ करते थे ।
पारदर्शिता बनी रही थी, अधिकारियों ने चमचा मीडिया चैनलों में “सूत्रों” से लीक करवाने और कहानियों चलवाने के बजाए, स्थिति की अधिकारिक जानकारी सीधे हमें दी। ऑपेरशन के दौरान विफलताओं के बारे में सवाल उठाये गए, कि मुंबई में एनएसजी की तैनाती में देरी, खुफिया सेवाओं और सुरक्षा बलों के द्वारा क्या क्या गलतियाँ हुईं, इस पर भी चर्चा हुई। ऐसे भी नेता या मुख्यमंत्री थे, जो मुंबई तभी पहुँच गए, जबकि हमले अभी भी जारी थे, और इस पर राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश की थी। यहाँ तक की गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करने वाले राजनेताओं के प्रति क्रोध भी था, लेकिन साथी भारतीयों की एक राजद्रोहियों के रूप में कोई व्यापकलेबलिंग नहीं की गयी थी।
विफलताओं पर सवाल उठाने , और इनका पोस्टमार्टम करने की वजह से, अगले हमले के लिए हमारी तैयारियों में सुधार भी हुआ – उदाहरण के लिए, हमने एनएसजी बटालियनों का विकेंद्रीकरण किया। दूसरी ओर, “आप सेना पर सवाल नहीं कर सकते हैं” का रवैया ही मुख्य वजह है कि आज पाकिस्तान आज जैसा भी है, वैसा बन गया है।
हमारे सामने रक्षा मंत्रालय के बाबुओं, वरिष्ठ अधिकारियों और आर्मी सप्लाई कोर के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा, सैनिकों के लिए घटिया कपड़े, राशन, उपकरण और भी यहां तक की ताबूतों को खरीदने में भी कमीशन खाने के कई उदाहरण हैं। अगर हम इस तरह के भ्रष्टाचार पर अगर सवाल करें तो क्या हम देशद्रोही बन जाते हैं? जो लोग “आप सेना पर सवाल नहीं कर सकते” की नौटंकी चला रहे हैं, क्या वो इसके नाम पर इस तरह के अधिकारियों को बचाने का काम नहीं कर रहे हैं? क्या वे वास्तव में भारतीय सेना और अपने सैनिकों की मदद कर रहे हैं?
जब लोग डॉ मनमोहन सिंह की कार्रवाई पर सवाल उठाते थे, या विरोध करते थे, इसे भारत पर सवाल करने, या विरोध करने के बराबर नहीं माना जाता था।
नवम्बर 1962 में, नौजवान सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन के साथ चल रहे युद्ध के बीच में एक संसद सत्र की मांग की, और उन्होंने कहा कि नेफा क्षेत्र में भारतीय सेना की तैयारियों में कमी पर सवाल पूछा:[10]
“विजय की पहली चुनौती, और मांग ये है कि हम आत्मचिंतन करें। एक लोकतंत्र में संवेदनशील मामलों, जहाँ हमसे गंभीर गलती हुई है और हम बड़े पाप के दोषी थे, को छुपकर नहीं, बल्कि ये खुले तौर पर स्वीकार करने के द्वारा होता है। “
वाजपेयी के इस भाषण को भारतीय सेना पर हमले के रूप में नहीं देखा गया था । एक नए रक्षा मंत्री वाई.बी. चव्हाण को नियुक्त किया गया था, जिन्होंने कमियों को संबोधित किया, और यह सुनिश्चित किया कि हमारी सेना 1965 के युद्ध से ज्यादा बेहतर तरीके से निपटने के लिए तैयार हो गयी।
अब क्या बदल गया था?
क्या ७०% भारतीय रातोंरात देशद्रोही बन सकते हैं? जैसा की सोशल मीडिया, और यहां तक कि मुख्यधारा के मीडिया पर, रोजाना बढ़ती हुई कड़वाहट बता रही थी?
या, यह केवल शीर्ष पर एक ध्रुवीकरण फैलाने वाले विभाजनकारी नेतृत्व होने का नतीजा है, जो ना केवल सभी भारतीयों को एक साथ लाने बुरी तरह नाकाम रहा है, बल्कि इसके बजाय, यह वास्तव में लगातार छोटे-मोटे मुद्दों पर हमारे बीच और ध्रुवीकरण और मतभेद बनाकर फल फूल रहा है – बीफ, भारत माता की जय, तिरंगा झंडा, वंदे मातरम, पाकिस्तानी कलाकार, ट्रिपल तलाक़ और भी ना जाने क्या क्या।
हमारी अपनी सरकार और इसके कठपुतली मीडिया संगठन जानबूझ कर हमें और भी लड़ाने पर क्यों तुले हुए हैं? क्या इसका उद्देश्य विशुद्ध रूप से टीआरपी के द्वारा संचालित है, एक सोची समझी रणनीति के तहत सरकार पर कठिन सवालों से ध्यान हटाना है, या यह एक और अधिक भयावह गोएबेल्स की राजनीति का खेल है? क्या एक कम विभाजनकारी नेतृत्व के साथ ऐसी स्थिति मौजूद रहती?
नाजी प्रोपगैंडा की इन सभी तकनीकों (“नाम लेबलिंग”, “बैंडवागन “, “स्थानांतरण” और “कार्ड स्टैकिंग”) का प्रयोग करके, ज्यादातर फायदा किसका हुआ है?
ये सवाल अंत में मुझे और अधिक स्पष्टता की तरफ ले गए – पहेली के टुकड़े अंत में एक साथ फिट होने लगे।
असल में क्या हुआ था?
- एन.डी.ए. ने 1998-2004 के दौरान देश पर शासन किया। मोदी और उनके भाजपा के मित्रों को बहुत अच्छी तरह से पता होना चाहिए कि भारतीय सेना कैसे काम करती है। विशेष रूप से, पाकिस्तान की ओर से हमलों का बदला लेने के लिए की किस प्रकार नियमित रूप से जवाबी कार्रवाई की जाती है. इनका मूल उद्देश्य होता है अपने सैनिकों का मनोबल ऊँचा बनाये रखना और दुश्मन के लिए ऐसी कार्रवाई को उसके लिए इतना महंगा बना देना की वो दुबारा दुःस्साहस न करे। इन ऑपेऱशनों को गुप्त रखा जाता है, क्योंकि इनका प्राथमिक उद्देश्य दुश्मनों के लिए एक संदेश देने का होता है, ना की हमारी अपने वोटरों या जनता को।
- फिर भी वे कभी डॉ मनमोहन सिंह पर अपने कथित “कार्रवाई की कमी” पर सस्ते ताने मारने से बाज़ नहीं आये।
- मैं वास्तव में इस सभी उत्तेजक बदनामी को अपनी ओर फेंके जाने के बावजूद डॉ सिंह के शांत रहने की सराहना करता हूं । कल्पना कीजिए, आप प्रधानमंत्री हैं। आपको पता है कि सेना ने पहले से ही किसी हमले का बदला ले लिया है, आपके विरोधी अभी भी आपके ऊपर सस्ती और उकसाने वाली टिप्पणी और घटिया स्तर की बयानबाजी कर रहे हैं, और आप फिर भी उनके बारे में चुप रह जाते हैं- राष्ट्रीय हित में। इसको साहस कहते हैं!
- अतीत में धमकी के ऐसे अनुचित बयान, एक समय में उनके भक्तों को काफी प्रभावित किया था, लेकिन यही कारण था कि जब उरी हमला हुआ, तो मोदी ने खुद को एक कोने में घिरा हुआ पाया। उनके भक्तों का पूरी तरह से मोहभंग होने लगा था।
- इस बार सेना ने आपरेशन के बारे में इस तरह सार्वजनिक रूप से बात की है, इसकी वजह पूरी तरह सेराजनीतिक है,और अपने घरेलू वोटरों को खुश करने के उद्देश्य से है। श्री मोदी को डर था कि उनके भक्तों की एक बड़ी संख्या उन्हें छोड़ देगी।
- “सर्जिकल स्ट्राइक्स” के एक सप्ताह पहले, भाजपा प्रोपगंडा मशीनरी ने पहले सिर्फ मीडिया को एक कहानी लीक से करके काम चलाने की कोशिश की, लेकिन वह केवल एक वेबसाइट द्वारा प्रकाशित की गयी। ( क्विंट )। ज्यादातर लोगों ने इसपर यकीन नहीं किया। भाजपा को समझ में आ गया कि उसे जमीन पर कुछ वास्तविक कार्रवाई, और सेना से एक आधिकारिक बयान की जरूरत है, और फिर मीडिया में प्रोपोगैंडा शो का प्रयास सफल हो पायेगा।
- मैं भारतीय सेना को बहुत करीब से जानता हूँ, और उसका बहुत सम्मान करता हूँ। मुझे इस बात पर कोई शक नहीं है कि उन्होनें कुछ आपरेशन तो अवश्य ही किया था। यहां तक कि पाकिस्तान के भरोसेमंद पत्रकारों में से कुछ ने भी जमीन पर कुछ कार्रवाई होने को स्वीकार किया है।[11][12]
- हालांकि,सेना ने क्या दावा किया है , और हमारे मीडिया में क्या दावा किया जा रहा है में एक बड़ा अंतर है, और इस फ़र्क़ को समझने की जरूरत है ।
- डीजीएमओ के संक्षिप्त और नपे-तुले बयान में ऑपरेशन के बारे में सिर्फ दो वाक्य हैं । यही भारतीय सेना की आधिकारिक पोजीशन है। आपरेशन के बारे में बाकी सभी बातें एक असत्यापित अटकलबाजी है, और शायद बहुत बढ़ा चढ़ा कर की गयीं हैं। यह मीडिया को मोदी के प्रचार मशीनरी द्वारा दिया जा रहा है। और बस हमारे तथाकथित “राष्ट्रवादी” मीडिया में फैलाये जा रहे यही दावे विश्वसनीयता की सीमा से बाहर जा रहे हैं।
- मोदी और सेना के बीच स्पष्ट फर्क समझने की जरूरत है। हालंकि वो सेना का सारा क्रेडिट चोरी कर रहे हैं, और खुद पर उठाये हर पर एक सवाल को और उनका गोदी मीडिया भारतीय सेना पर उठाये सवाल या आलोचना की तरह दिखाने प्रयास कर रहा है, श्री मोदी भारतीय सेना नहीं हैं ।
- इससे भी बदतर, मीडिया में मोदी के चमचों ने इसका इस्तेमाल भी अपने विभाजनकारी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए एक अवसर के रूप में इस्तेमाल किया है. ये लोग बस फ़ालतू के मुद्दों को उछाल रहे हैं (जैसे की बॉलीवुड में पाकिस्तानी कलाकारों का काम करना), जिन पर कोई भी उदार/बौद्धिक आवाज बेवजह ही जोशीले फर्जी राष्ट्रवाद पर हँसेगी, और उसका विरोध करेगी, को नीचे दिखाने के लिए कर रहे हैं। यह तरीका सीधे नाज़ियों के मंत्री गोएबबेल्स की किताब से चुराया गया है!
- यदि आपने एलओसी के दूसरी तरफ से भेजी गयी सीएनएन/बीबीसी की रिपोर्टों को देखा है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत इस मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना दृष्टिकोण बता पाने की लड़ाई को हार रहा है। बाकी दुनिया टाइम्स नाउ या ज़ी न्यूज़ को नहीं देखती है। विश्व की मीडिया “लीक” को लपक कर उनके तथाकथित राष्ट्रवादी दावों को तथ्य के रूप में नहीं दिखा रही है, जैसा की भारतीय मीडिया में कई कर रहे हैं । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, भारत सरकार और भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता कम हुई है।
- दी इकोनॉमिस्ट, दुनिया भर में राय निर्माताओं द्वारा पढ़ी जाने वाली एक बहुत ही सम्मानित पत्रिका, कहती हैं:[13]
“कट्टर भारतीय युद्ध प्रेमियों द्वारा वर्णित दुश्मन लाइनों के पीछे गहरी प्रतिशोध की दृढ़ कृत्य के बजाय , ऐसा लगता है कि भारतीय कमांडो के छोटे दल इस्लामी छापामारों द्वारा प्रयोग की जाने वाले सुरक्षित घरों पर हमला करने के लिए नियंत्रण रेखा के पार चले गये थे।
मारे गए आतंकियों की संख्या शुरू में भारत द्वारा 38-50 के दावे के बजाय एक दर्जन या उससे कम होने का अनुमान है। मारे गए लोगों में से कोई भी पाकिस्तानी सेना कर्मी नहीं थे। और चूंकि पाकिस्तानी सरकार घरेलू राय को भड़काने, जिससे की वो मामलों को आगे बढ़ाने के लिए मजबूर हो जाएँ, की कोई इच्छा नहीं है, उसने यह नाटक किया कि कुछ भी नहीं हुआ था को प्राथमिकता दी।
यह पता चलने की बाद कि उसकी “सर्जिकल स्ट्राइक” शायद पहले फैलाये गए दावों की तुलना में कहीं कम विनाशकारी थी, भारत ने भी इसपर चुप रहना पसंद किया है।”
इसी प्रकार अमेरिका की प्रतिष्ठित अटलांटिक पत्रिका कहती हैं:[14]
जितनी तेजी से इसका प्रचार किया गया, उससे यही समझ में आता है कि हमले काफी हद तक घरेलू वोटरों को ध्यान में रख कर किये गये थे। हाल के महीनों में, मोदी सख़्ती के लिए अपनी इमेज, साथ ही उनकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पाकिस्तान को कोई रियायत ना देने की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए दबाव का सामना किया। भारत ने इन हमलों को पाकिस्तान को रोकने के लिए नहीं बल्कि एक प्रोपगैंडा के लिए किया था, इससे पहले ऐसे हमलों का पाकिस्तान की आतंकवादियों को पालने और उनके प्रति लगाव पर कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ा था।
- हालांकि, यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार को अंतरराष्ट्रीय कवरेज, और भारतीय सेना की साख़ की किसी भी हानि की कोई चिंता नहीं थी। वे केवल उत्तर प्रदेश में मतदाताओं की सोच रहे थे, जो कि जी न्यूज और टाइम्स नाऊ देख रहे थे।
- हमलों के बारे में खुद ही डंका बजाकर, हमने पहले से ही किसी कार्रवाई से साफ़ इंकार करने का रास्ता बंद कर दिया है, और “शक्तिशाली देश जो कि संयम बरतता है” वाली छवि को भी खो दिया है। एक हमलावर के होने के नाते अब भविष्य में प्रत्येक उकसावे पर मजबूर वृद्धि की समस्या पैदा करेगा।
- अब हमने इस हमले के बारे में बात करके पिछले हमलों के बारे में भानुमती का पिटारा खोल डाला है। पिछले गुप्त आपरेशनों (उदाहरण के लिए ऑपरेशन जिंजर [15]) के बहुत सारे ऐसे विवरण बाहर आ रहे हैं, जो पर्दे के भीतर ही छुपे रहते तो सबसे अच्छा रहता। यह सब मोदी सरकार द्वारा डंका बजाने का परिणाम था।
तो, सारांश में, वास्तव में इस बार पहले की तुलना में क्या अलग था?
उपसंहार
इन बहुचर्चित सर्जिकल स्ट्राइक्स के दो हफ्ते बाद, मैं भारत के सबसे लोकप्रिय हिंदी टीवी समाचार चैनल पर कुछ “समाचार” कहानियों को देख रहा था। पहले इसमें एक सुपरहिट गाने के एक पैरोडी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य वरिष्ठ रक्षा मंत्रालय के लोगों के कार्टून के साथ बॉलीवुड फिल्म का एक जोशीला गीत दिखाया गया, जो अभी भी सर्जिकल स्ट्राइक्स की खुशियाँ मना रहा था। ये एक ऐसी तस्वीर दिखा रहा था की अब दुश्मन कभी हम पर हमला करने की सोचेगा भी नहीं।
अगली कहानी कश्मीर में आतंकवादियों के हाथों मारे गए एक सैनिक के गांव में अंतिम संस्कार के दर्दनाक दृश्यों से भरी थी। जाहिर है, सर्जिकल स्ट्राइक्स कोई बहुत प्रभावी तरीके से हमलों को रोक नहीं सके थे, और पाकिस्तान के अंदर मौजूद आतंकवादियों के समूहों को सॅटॅलाइट से ट्रैक करने, और उनकी हर हरकत का पता लगा पाने की महान खुफिया क्षमताओं का दावा करने के बावजूद, हम अभी भी किसी भी तरह भारत के भीतर ही इस तरह के आतंकवादियों की आवाजाही पर नज़र रखने में असफल रहे थे।
अंतिम कहानी मुश्ताक अहमद जरगर बारे में थी। यह बताया कि कैसे वह फिर से सक्रिय हो गया था, और हमारे सुरक्षा बलों के लिए सिरदर्द बन रहा था। ये आईसी 814 के अपहरण के दौरान, वर्तमान एन.एस.ए. अजित डोभाल द्वारा की गयी बातचीत के बाद, भारत सरकार द्वारा छोड़े मौलाना मसूद अजहर सहित तीन आतंकवादियों में से एक था।
इसी क्रम में, ये तीन कहानियाँ, एक सुंदर सपने से जगा कर एक कड़वा सच और वास्तविकता की तरफ ले जाती हुई दिखीं – फ़िल्मी जीवन के बजाए वास्तविक जीवन में आतंकवाद के खतरे से निपटने के लिए हमारी सेना और हमारे एनएसए द्वारा सामना की जा रही चुनौतियों के बारे में, और इनसे निपटने में हमारी कमजोरियां।
मैं यह सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर एक बड़ा अपराध कौन सा था – एक अरब लोगों को एक झूठे सपने बेचना, या उन्हें अपने नींद से जगाने के लिए प्रयास करना, और उन्हें बताना कि वे सिर्फ सपना देख कर खुश हो रहे थे। ऐसे समय में, जब हमारी सरकार अपने राजनीतिक स्वार्थ और लक्ष्यों के लिए स्वयं अपने ही लोगों को एक बड़े पैमाने पर धोखा दे रही हो, अंग्रेजी लेखक मार्क ट्वेन द्वारा कही एक बात हमें एक सच्चे देशभक्त की राह पर कायम रहने में मदद कर सकती है।
“सच्चा देशभक्त अपने देश का हर समय समर्थन करता है, और अपनी सरकार का सिर्फ तब, जब वह समर्थन की हकदार हो।”