गोधरा की आग

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यदि गोधरा कांड वास्तव में एक पूर्व नियोजित साजिश थी जैसा गुजरात सरकार द्वारा दावा किया गया, तो फिर उनकी पुलिस को गवाहों को घूस देने की जरूरत क्यों पड़ी ? वे और अधिक विश्वसनीय गवाहों के साथ एक पुख्ता केस क्यों नहीं बना सके? उन्हें फॉरेंसिक रिपोर्ट के बाद अपनी ही चार्ज-शीट क्यों बदलनी पड़ गयी?

प्रस्तावना

झूठ जितना बड़ा होता है, उतने ही अधिक लोग उस पर विश्वास करने लगते हैं -एडॉल्फ हिटलर

एडॉल्फ हिटलर ने जर्मनी की गठबंधन सरकार के चांसलर के रूप में 30 जनवरी, 1933 में शपथ ली थी। उनकी पार्टी के पास जर्मन संसद (रैख़स्टाग), में केवल 32% सीटें थीं । उसको विशेष आपातकालीन शक्तियों को लेने के लिए इनेबलिंग एक्ट अधिनियम पारित करने की जरूरत थी, लेकिन ऐसा करने के लिए एक बहाना भी होना चाहिए था।

27 फरवरी, 1933, बर्लिन फायर ब्रिगेड विभाग को एक संदेश प्राप्त हुआ कि रैख़स्टाग भवन पर आग लग गई है। अभी बस आग बुझाई ही जा रही थी की हिटलर और उसके प्रचार मंत्री गोएबेल्स कार द्वारा रैख़स्टाग पहुंचे। उन्होंने तुरंत ही प्रतिद्वंद्वी कम्युनिस्टों को दोषी ठहराया और घोषणा की:

“आगजनी की यह कार्रवाई बोशेविकों (कम्युनिस्टों ) द्वारा जर्मनी में किए गए आतंकवाद का सबसे विभत्स कार्य है”।

अगले दिन, राष्ट्रपति द्वारा हिटलर को पूर्ण आपातकालीन शक्तियाँ दे दी गयीं थी। हिटलर ने दावा किया कि ये आग जर्मनी पर कब्ज़ा करने के लिए एक कम्युनिस्ट साजिश की शुरुआत थी। नाजी समाचार पत्रों ने इस प्रोपगैंडा को भरपूर फैलाया। 5 मार्च 1933 के चुनाव में नाज़ी पार्टी अपने वोट का हिस्सा 33% से 44% तक बढ़ाने में सफल हुए । जिस चिंगारी ने रैख़स्टाग को जलाया था, वह आगे चलकर यूरोप और एशिया के एक बड़े हिस्से को तबाह कर गयी, और इसके परिणाम में मानवता के खिलाफ सबसे बुरे अत्याचारों ने जन्म लिया ।

एक डच अराजकतावादी, वान डेर ल्यूब, को गिरफ्तार किया गया, और उसे फांसी की सजा दी गई। लेकिन वह 80 प्रतिशत नेत्रहीन था और 1933 में अपने परीक्षण में, मानसिक रूप से अक्षम भी दिखाई दिया।

बहुत सारे लोग हमेशा ही इन घटनाओं के सरकारी नाज़ी संस्करण पर शक करते आये, और यह शक बना रहा कि नाजियों ने आग खुद लगाई थी। हालांकि, इस षड़यंत्र का विवरण एक रहस्य बना रहा । नाजी रिकॉर्ड्स का एक बहुत बड़ा हिस्सा सोवियत रूस की लाल सेना द्वारा कब्जा में कर लिया गया था, और पश्चिम जर्मनी के स्वतंत्र जांचकर्ताओं के लिए ये रिकॉर्ड्स उपलब्ध नहीं थे।

अप्रैल 2001 में जाकर इतिहासकारों को अंत में इस साजिश के बारे निर्णायक सबूत मिले। पूर्वी जर्मन और सोवियत अभिलेखागार के दस्तावेज़ों से 50,000 से अधिक ऐसे पृष्ठों, जिन्हें इससे पहले अब तक कभी देखा नहीं गया था, की जांच के बाद चार अग्रणी जर्मन इतिहासकार इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि रैख़स्टाग पर आग वास्तव में एक नाजी साजिश का नतीजा था।

अगले ही वर्ष, 27 फ़रवरी 2002-को, ठीक उसी दिन जब रैख़स्टाग पर आग लगी थी, एक और ऐसी आग लगी जिसने समकालीन इतिहास के लिए व्यापक असर पैदा किया।

गोधरा आग

27 फ़रवरी 2002 की सुबह जब साबरमती एक्सप्रेस गोधरा के छोटे से स्टेशन में पहुँच रही थी, तो गुजरात में भाजपा को साख और एकता के मुद्दों का सामना करना पड़ रहा था। बड़े पैमाने पर अंदरूनी कलह के बाद केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया था, और मार्च 2003 को होने अगले चुनाव तक अस्थायी मुख्यमंत्री के रूप में केंद्रीय नेतृत्व द्वारा नरेंद्र मोदी को भेजा गया था। बस कुछ ही दिन पहले 3 सीटों पर हुए उप-चुनावों में कांग्रेस ने दो सीटें भाजपा से वापस जीत लीं थीं, और यहाँ तक कि राजकोट-II, जो कि भाजपा के लिए एक बहुत ही सुरक्षित सीट थी, और जहां श्री मोदी द्वारा खुद चुनाव लड़े थे, में भी एक प्रभावशाली और उत्साही चुनौती पेश की थी।

यह अमेरिका में हुए 9-11 हमलों के तुरंत बाद का समय था. अफगानिस्तान में अभी भी युद्ध चल रहा था, केंद्र में वाजपेयी सरकार ने 13 दिसंबर 2001 को भारतीय संसद पर हमले के बाद पश्चिमी सीमा पर अपने सैनिकों को जमा कर दिया था। इस बीच, भाजपा के संघ परिवार सहयोगी, विशेष रूप से बजरंग दल और विहिप, अयोध्या राम मंदिर अभियान के लिए शोर मचाने लगे थे, 15 मार्च से अयोध्या में “कार-सेवा” का के अगला दौर शुरू करने की योजना बना चुके थे।

इसकी शुरुआत विहिप द्वारा जनवरी 20 2002 को “चेतावनी यात्रा” के दौरान भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार को अल्टीमेटम के साथ हुई थी । अयोध्या में भीड़ जमा करने के लिए 24 फरवरी से 2 जून तक यानी 100 दिन तक चलने वाले एक ‘पूर्णाहुति महायज्ञ’ कार्यक्रम को शुरू किया गया।[1][2]

संघ परिवार द्वारा अयोध्या में आयोजित इसी तरह के पिछले कार्यक्रमों की तरह, इस बार भी गुजरात से एक बड़ी संख्या में कारसेवकों की भीड़ शामिल थी । कार-सेवा के लिए गुजरात से 2000 कार्यकर्ताओं के तीन समूह साबरमती एक्सप्रेस से अयोध्या के लिए जाने वाले थे।

उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए भेजा गुजरात एसआईबी नोट के आधार पर हमने निम्नलिखित समूहों के बारे में पता है 

  • 2800 – दिलीप त्रिवेदी और कुमारी मालाबेन रावल के नेतृत्व में 22 फ़रवरी , अहमदाबाद से रवाना
  • 1900 – विजय प्रमाणी ,हरेशभाई  भट्ट और खेमराजभाई  देसाई के नेतृत्व में 24 फरवरी को वडोदरा से रवाना
  • 1500 – विहिप, बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी के कार्यकर्ता नरेन्द्रभाई व्यास के नेतृत्व में पर 26 फरवरी, अहमदाबाद से रवाना

एक समूह ने 25 फरवरी 2002, की शाम को साबरमती एक्सप्रेस से अहमदाबाद के लिए अपनी वापसी यात्रा शुरू की.[3]

(यह स्पष्ट नहीं है कि वे क्यों इतनी जल्दी लौट आए, या अगर यह सामान्य ज्ञान भी था कि वे लौट रहे थे)। उनमें से ज्यादातर आरक्षण के बिना यात्रा कर रहे थे, और इन्होने टिकट सहित चलने वाले वास्तविक यात्रियों एक सीमित स्थान में “एडजस्ट” के लिए मजबूर किया। गोधरा से दो स्टेशनों पहले रतलाम में जो टिकट कलेक्टर आया तो उसे इन कारसेवकों ने भीड़ भरे कोच में घुसने भी नहीं दिया ।

गोधरा

घटनाओं के अनुक्रम

27 फ़रवरी 2002 – दुर्भाग्यपूर्ण दिन

  1. 07:42 । ट्रेन नं 9166 साबरमती एक्सप्रेस, उत्तर प्रदेश, अयोध्या से वापस अपने रास्ते पर कारसेवकों को ले जाने के गोधरा रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म नंबर 1 पर आती है। ट्रेन अपने निर्धारित आगमन समय 0255 के पीछे करीब पांच घंटे देरी से पहुंची है. [4]
  1. कारसेवक प्लेटफॉर्म पर उतरते हैं, कई रिपोर्टों के अनुसार वे भड़काऊ नारे लगाते हैं
    1. प्लेटफॉर्म पर कारसेवकों की मुस्लिम चाय विक्रेताओं के साथ झड़प ।
    2. वहाँ एक अफवाह फ़ैल जाती है कि एक मुस्लिम लड़की, सोफिया शेख, का कारसेवकों द्वारा अपहरण किया गया है।
    3. प्लेटफॉर्म पर मुसलमानों ने ट्रेन पर पथराव शुरू कर दिया।
  2. 07:47 : 0745 पर हरी झंडी  हो जाती है, ट्रेन ड्राइवर राजेंद्रर रघुनाथ राव जैसे ही ट्रेन को आगे बढ़ाता है , चेन खींची जाती है और ट्रेन रुक जाती है। कुछ कारसेवक अभी तक ट्रेन में सवार हो रहे थे।
  3. 07:55 साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन फिर से शुरू होती है
  4. 08:00 स्टेशन से एक किलोमीटर की दूरी पर जाने के बाद, केबिन-ए के पास, स्वचालित ब्रेक प्रणाली में वैक्यूम के छोड़ने की वजह से ट्रेन एक बार फिर से रुक जाती है।
  5. एक भीड़ ने ट्रैन का स्टेशन से पीछा किया है, और भारी पत्थर पथराव जारी है। सभी खिड़कियाँ बंद कर रहे हैं, एस-6 एक गैर ए/सी, 3-टियर स्लीपर कोच है, जिसमे शीशे के अलावा धातु का शटर जंगला भी है।
  6. 08:20 एस -6 कोच से धुआँ निकलता देखा गया
  7. 08:20 फायर ब्रिगेड ऑपरेटर आग के बारे में कॉल प्राप्त करता है।
  8. 08:26  जिला कलेक्टर जयंती रवि को डीएसपी राजू भार्गव से यह टेलीफोन संदेश मिलता है कि साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन पर हमला किया जा रहा है।
  9. 08:30 डीएसपी श्री राजू भार्गव घटनास्थल तक पहुंचते हैं, भीड़ भाग जाती है।
  10. 08:35 गोधरा में काम कर रही अकेली फायर ब्रिगेड इंजन (अन्य दो बेकार टूटी पड़ी थीं) घटनास्थल पर पहुँचती है।
  11. 08:50 जिला कलेक्टर सुश्री जयंती रवि घटनास्थल तक पहुँचतीं है, आग पहले से ही बुझाई जा चुकी है
  12. 09:00 गृह सचिव, गृह मंत्री और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को इस घटना के बारे में सूचित किया जाता है।
  13. 09:39 नरेंद्र मोदी, दंगों के एक आरोपी विहिप नेता जयदीप पटेल से दो बार बात करते हैं ।
  14. 12:40 साबरमती एक्सप्रेस को 3000 यात्रियों के साथ अपनी आगे की यात्रा पर भेज दिया जाता है ।
  15. 04:30 मोदी घटनास्थल पर आता है, और हमले को एक पूर्व सोची-समझी साजिश बताते हैं

28 मार्च 2002 – अभी तक कोई साजिश के सुराग नहीं मिले

गोधरा नरसंहार के एक महीने बाद, पुलिस जांच को ऐसे कोई भी सबूत नहीं मिल पाए थे, जिनसे ये सिद्ध हो कि 58 यात्रियों को मारने का पागलपन, कोई पूर्व नियोजित साज़िश थी । आईजीपी (रेलवे) पी.पी. अगजा ने  टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि[5]

“मामले की अभी भी जांच की जा रही है और अगर वहाँ कुछ गहरी साजिश थी, तो हम अभी तक उसे ढूंढ नहीं पाए हैं”

10 अप्रैल 2002 – पेट्रोल की बिक्री से इंकार 

गोधरा स्टेशन के पास के दोनों पेट्रोल पम्पों को पुलिस द्वारा 27 फरवरी 2002 को ही सील  बंद कर दिया गया था।वेजलपुर सड़क पर स्थित पहले पेट्रोल पंप के मालिक एमएच पटेल और ए पटेल थे, और दूसरे पंप के मालिक असगरअली क़ुर्बान हुसैन (कालाभाई) थे।

प्रभातसिंह पटेल और रणजीत सिंह पटेल गोधरा घटना के समय कालाभाई के पेट्रोल पंप पर कार्यरत दो सेल्समैन थे। अप्रैल 10, 2002 को घटना के एक महीने के बाद, दोनो ने पुलिस से कहा था कि वे 26 फरवरी को शाम 6:00 बजे से लेकर 27 फरवरी, 2002 की सुबह 9:00 बजे तक काम पर थे और उस अवधि के दौरान उन्होंने किसी को भी खुला पेट्रोल नहीं बेचा था।

22 मई 2002 – पहला आरोप पत्र, मिट्टी का तेल बाहर से फेंका गया

गोधरा ट्रेन जलाने के मामले में पहला आरोप पत्र (चार्जशीट) जांच अधिकारी डीएसपी के.सी.. बावा द्वारा 22 मई 2002 को दायर किया गया था, और इसमें आरोप लगाया गया कि S6 कोच पर बाहर से कुछ ज्वलनशील तरल पदार्थ  फेंककर जलाया गया (यह स्पष्ट रूप से बताया नहीं गया है कि ज्वलनशील तरल पदार्थ पेट्रोल, मिट्टी के तेल या डीजल था)। बावा ने नौ चश्मदीद गवाहों के बयान पर भरोसा किया, जिसने दावा किया की वो उसी केबिन के पास मौजूद थे जहाँ S6 कोच जलाया गया था। मजे की बात है, ये सभी गवाह भाजपा के सदस्य थे, और इन सबने अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के स्थानीय नेताओं के खिलाफ आरोप लगाए।

स्टेशन पर सुबह सुबह आखिर ये नौ भाजपाई क्या कर रहे थे? ना तो उनमें से कोई भी साबरमती एक्सप्रेस पर यात्रा कर रहा था और न ही उनमें से किसी का गोधरा से किसी भी ट्रेन में सवार होकर कहीं जाने का इरादा था। तो वे वहाँ इतनी सुबह आखिर कर क्या रहे थे? उन सभी के पास इसका एक ही जवाब था।

“2002/02/27 की तारीख़ पर, चूंकि अयोध्या के लिए गए कार्यकर्ता और कारसेवक साबरमती एक्सप्रेस से वापस आ रहे थे, मैं और अन्य कार्यकर्ता उनका स्वागत करने के लिए और उन्हें चाय और नाश्ता करवाने के लिए 6:30 सुबह गोधरा रेलवे स्टेशन पर उनका इंतज़ार कर रहे थे।”

इन्होने रात को 1-2 बजे के आसपास साबरमती एक्सप्रेस में 5 घंटे की देरी का पता कैसे लगाया, कब इस चाय और नाश्ते का इंतज़ाम करवाया, ये साफ़ नहीं है।

सभी नौ गवाहों ने साबरमती एक्सप्रेस पर यात्रा कर रहे आठ विहिप नेताओं के नाम लिए, जिनका नाश्ते के साथ स्वागत करने के लिए जाने का वे दावा कर रहे थे। वे अदालत में ये साबित करने में असमर्थ रहे कि उन्होंने वास्तव में किसी भी तरह का नाश्ता खरीदा था। न ही वो प्लेटफॉर्म टिकट की खरीदारी का कोई सबूत दे पाए।

तो इन इन नौ भाजपाईयों ने आखिर देखा क्या? उनका दावा है कि उन्होंने सब कुछ देखा – भीड़, भीड़ द्द्वारा तेज़ धार हथियारों और ज्वलनशील सामग्री का ले जाना, और आग लगाया जाना, जो कि प्लेटफार्म से एक किलोमीटर की दूरी पर हुआ था।

एक बार कोच एस-6 बाहर से जलाये जाने का केस बनाने के बाद, बावा के हर जगह मिट्टी के तेल के जेरीकेन मिलने शुरू हो गए। 29 मार्च और अप्रैल 5 के बीच, तीन जेरीकेन कथित आरोपियों – हाजी बिलाल, अब्दुल मजीद धंतियान और कासिम बिरयानी के पास से तीन जेरीकेन बरामद किये गए थे।

27 मई 2002 – नोएल परमार ने कार्यभार संभाला

पहले आरोप पत्र के मात्र पांच दिन बाद – मई 27, 2002 को एक नया जांच अधिकारी नियुक्त किया गया। वडोदरा शहर नियंत्रण कक्ष के एसीपी नोएल परमार ने के.सी. बावा से इस केस का चार्ज लिया।

नोएल परमार के साथ एक गुप्त बातचीत में, तहलका पत्रिका ने पाया कि परमार एक तटस्थ अन्वेषक नहीं था। उसकी बातचीत के कुछ अंश परमार के अंदर, मुसलमानों के प्रति बैठी गहरी घृणा का पर्दाफाश करने के लिए पर्याप्त हैं। उनके बयान के कुछ नमूने :

“विभाजन के दौरान, गोधरा के कई मुसलमानों पाकिस्तान चले गए … वास्तव में, वहाँ एक क्षेत्र कराची में गोधरा कॉलोनी कहा जाता है … गोधरा में हर परिवार का कराची में एक रिश्तेदार है … वे कट्टरपंथियों में रहे हैं … सिग्नल फलिया का इलाका, पूरी तरह से हिंदू था, लेकिन धीरे-धीरे मुसलमानों ने कब्ज़ा कर लिया है … 1989 में भी वहाँ दंगे हुए थे … आठ हिंदुओं को जिंदा जला दिया गया … वे सब गाय का मांस खाते हैं, क्योंकि यह सस्ता होता है …हर परिवार में कम से कम दस बच्चे हैं, वे सब पूरी तरह कट्टरपंथियों,तब्लीग़ी जमात के साथ जुड़े रहे हैं  …। “

परमार 2005 में रिटायर हो गए, लेकिन राज्य सरकार ने उसे रोके रखा और उसे तब से पांच बार छह-महीने का एक्सटेंशन दिया। इन एक्सटेंशन के दौरान वो गोधरा मामले में शामिल रहे। [6]

अब तक इस तरह की ख़ास सुविधा का आनंद किसी और पुलिस अधिकारी को नहीं मिला है। अंतिम एक्सटेंशन में उसको आईपीएस रैंक के पुलिस अधीक्षक पद के लिए प्रमोशन भी दिया गया। यह इस प्रकार स्पष्ट है कि वह मोदी का चहेता अफसर था, जिसको काफी “ईनाम” दिया गया था। यहाँ तक कि उसे गुजरात एसआईटी के लिए एक सहायक अधिकारी के रूप में नामित भी किया गया था।

2 जुलाई 2002 – फोरेंसिक रिपोर्ट – बाहर से कुछ नहीं फेंका गया

अहमदाबाद स्थित फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (FSL) के सहायक निदेशक डॉ एम.एस. दहिया की रिपोर्ट आती है जो कि यह साबित करती है कि बाहर से S6 कोच के अंदर ज्वलनशील तरल लिक्विड डाल कर आग लगाना संभव नहीं था। [7]

रिपोर्ट में कहा गया कि बोगी की खिड़की की ऊंचाई ज़मीन से सात फुट पर थी। इस हालत में, एक बाल्टी या जेरीकैन की मदद के साथ बाहर से बोगी में ज्वलनशील तरल पदार्थ फेंकना संभव नहीं था, क्योंकि इस तरीके से ज्यादातर पेट्रोल बोगी के बाहर गिर जाएगा ।

इसके अलावा, आग के निशान कोच की खिड़कियों से नीचे नहीं थे; जलने के निशान केवल खिड़की के स्तर से ऊपर देखे गए, जो ये साबित करता है कि आग कोच के अंदर शुरू हुई थी और उसकी लपटें खिड़की के स्तर से ऊपर डिब्बे के बाहर फैलीं थीं।[8]

एक बात याद रखना महत्वपूर्ण है, भारतीय रेल के द्वितीय श्रेणी स्लीपर कोच में कांच की खिड़कियों के अलावा,स्टील के शटर भी होते हैं। गवाहों के अनुसार, जब एक बार प्लेटफार्म में पथराव शुरू हुआ था, खिड़कियां और ये स्टील शटर बंद कर दिये गए थे। मतलब कि ना केवल जमीनी स्तर पर खड़े लोगों के लिए खिड़की बहुत अधिक ऊंचाई पर थी,यदि शटर बंद हों, तो शायद ही बाहर से फेंका गया पेट्रोल अंदर तक पहुंच पायेगा, इसमें से अधिकांश बस बाहर ही गिर जाएगा। जमीन पर पेट्रोल के कोई भी अवशेष नहीं मिले थे।

भारतीय रेल-एल-Reut

स्लीपर कोच के खिड़की की ऊंचाई पर ध्यान दें,  यहाँ पर व्यक्ति आसानी से खिड़की के शटर की सफाई सिर्फ इसलिए कर पा रहा है क्योंकि वह एक लगभग 3 फुट ऊंचे प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर सफाई कर रहा है।

जमीन से खिड़की की ऊंचाई लगभग 7 फुट है, जो औसत आदमी से कहीं ऊंची है

गोधरा-गाड़ी

गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस की एक और कोच का एक फ़ोटो। ध्यान दें कि शटर नीचे हैं, फेंके गए पत्थर से कांच टूट गया है।

FSL को S6 कोच से लिए सैंपल में हाइड्रोकार्बन होने की सुराग मिले, हालंकि साइट से एकत्र सैंपल की विश्वसनीयता अत्यधिक संदिग्ध है।  गोधरा आग का अपने राजनीतिक लाभ के लिए दोहन करने के उत्साह में राज्य सरकार ने इस कोच को एक सम्वेदनशील अपराध  क्षेत्र की तरह सीलबंद रखने के बजाए, आम जनता के लिए खुला छोड़ डाला था। मंत्रियों ने अपने पूरे लश्कर के साथ स्थल का दौरा किया, और प्रचार के लिए इसका फायदा उठाया। कोच एस-6 से सैंपल एकत्र किए जाने से पहले, मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों सहित सैकड़ों दर्शकों और आगंतुक घटनास्थल पर आ चुके थे। ऐसे में संदिग्ध सामग्री आसानी से कोच के अंदर से हटा दिया जा सकता था। और उसी तरह से, FSL को कोच के अंदर से मिला सैंपल भी बाद में डाला जा सकता था। अगर वाक़ई में कुछ ज्वलनशील लिक्विड एक साजिश के तहत फेंका गया था, तो भी राज्य सरकार ने फोरेंसिक की अखंडता पर ये संदेह पैदा करके अभियोजन पक्ष के केस को कमजोर किया। आखिर वो क्यों ऐसा किये?

9 जुलाई 2002 – एक नया सर्वज्ञानी गवाह प्रकट होता है

FSL रिपोर्ट ने गुजरात सरकार, जिनकी अब तक की जांच केवल मुख्यमंत्री के बयान को सही साबित करने की कोशिश थी, के लिए एक बड़ी समस्या पैदा कर की।

आधिकारिक वैज्ञानिक सबूत ने स्पष्ट रूप से ये दिखा दिया था, और पूरी तरह साबित कर दिया था कि आग अंदर से शुरू हुई थी, और खिड़कियों के माध्यम से बाहर से पेट्रोल फेंककर इसे शुरू नहीं किया जा सकता था।

राज्य सरकार ने अपनी प्रारंभिक जांच ईमानदारी से नहीं की थी। उसका पहला आरोप पत्र परस्पर विरोधी और विरोधाभासी दावों के एक ताना बाना था, और इसके द्वारा प्रस्तावित सिद्धांत को अब FSL रिपोर्ट ने ग़लत साबित करके पूरी तरह एक्सपोज कर दिया था। एक नए आरोप पत्र की जरूरत थी। इस पूरी नौटंकी में कुछ विश्वसनीयता वापस लाने के लिए, पहले आरोप पत्र के डेढ़ महीने बाद, और घटना के पांच महीने के बाद, 9 जुलाई 2002 को पुलिस ने एक नया गवाह पैदा किया – एक मुस्लिम नहीं बल्कि एक हिंदू। नया गवाह अजय बारिया गोधरा रेलवे स्टेशन पर एक चाय विक्रेता था, और उस समय बेरोज़गार था। नोएल परमार के रेडिफ के लिए साक्षात्कार इस गवाह के कुछ विवरण प्रदान करता है।

अजय बारिया ने दावा किया कि 27 फरवरी 2002 की सुबह, साबरमती एक्सप्रेस के आने के बाद था, नौ फेरी वालों – सभी मुसलमानों – जिसे वह जानता था, क्योंकि वे सभी गोधरा स्टेशन पर माल बेचते थे, जबरन उसे  रज़्ज़ाक कुरकुर के घर में ले गए। वहां पहुंचने पर,ये नौ फेरी वाले कुरकुर के घर के अंदर गए और “मिट्टी का तेल” से भरे जेरी-कैन (वह जेरी-कैन की संख्या नहीं बता पाता है और वह विशेष रूप से “मिट्टी के तेल” शब्द का उपयोग करता है)।

उसने कहा कि फेरी वालों में से एक ने एक रिक्शा पर उसे एक जेरी-कैन लोड करने के लिए उसे मजबूर किया, जबकि शेष जेरी-कैन अन्य फेरी वालों से लोड करवाए गये। फेरी वालों ने उसे साथ जाने के लिए मजबूर कर दिया। भयभीत बारिया रिक्शा पर चढ़ गया, जिसे फेरी वाले केबिन ए के पास ले गए, जहां ट्रेन खड़ी थी । उसके अनुसार, कुछ फेरी वालों ने पहले कोच एस 2 पर आग लगाने की कोशिश की।

जब वे विफल रहे, तो उन्होंने कोच एस -6 और एस -7 के बीच के वेस्टिब्यूल (कोच जोड़ने वाला मार्ग) को काट डाला। ये करने के बाद, छह फेरी वाले एस -6 कोच के अंदर चले गए और कोच की फर्श  पर मिट्टी का तेलडाला। तीन अन्य लोगों ने खिड़कियों के माध्यम से कोच में केरोसिन छिड़का। और एक विक्रेता ने कोच एस -6 में एक जलता हुआ कपड़ा फेंक दिया । इस प्रकार, कोच आग लगा दी गई।

  • यदि रिक्शा पर जेरी-कैन लोड करने के लिए नौ मुस्लिम फेरी वाले पहले से ही मौजूद थे, तो फिर उन्हें सिर्फ एक जेरी-कैन लोड करने के लिए बारिया की मदद की क्या जरूरत थी?
  • इसके अलावा, ये बात बिलकुल भी तर्कसंगत नहीं लगती है की आखिर नौ मुसलमानों को एक सांप्रदायिक अपराध करने के लिए एक हिंदू चाय विक्रेता को साथ लेकर चलेंगे।

20 सितंबर 2002 – दूसरा आरोप-पत्र, अंदर से पेट्रोल डाला गया।

पहली जांच इतनी स्पष्ट रूप से घटिया क्यों थी, इसपर सवाल करने वाले हम कौन होते हैं। जिन लोगों ने मेरे अन्य लेख और एसआईटी रिपोर्ट पढ़े हैं, वो समझ जाएंगे कि ये कोई इकलौता या अनूठा मामला नहीं है जिसमे गुजरात पुलिस में मोदी के पसंदीदा अधिकारियों द्वारा इस पूरी तरह से बेतुकी, झूठी और ऊटपटांग दलीलें सामने लायी गयीं।

27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस में आग लगाने की इस इस कथित साजिश के उद्देश्य से, कथित तौर पर कालभाई के पेट्रोल पंप से पिछली रात को 140 लीटर पेट्रोल खरीदकर कुरकुर के घर में रखा गया था। यह आरोप लगाया गया कि 26 फरवरी 2002 के 9.30-10 बजे मौलाना उमरजी ने निर्देश दिया था कि कोच एस-6 में आग लगा दी जानी चाहिए।

अभियोजन पक्ष (गुजरात सरकार) द्वारा ये पूरा आरोप – कि कोच एस-6 एक पूर्व सोची-समझी साजिश के तहत जला दिया गया था – मात्र कुछ संदिग्ध गवाहों की गवाही पर टिकी हुई है. साथ में फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट है, जिसमे कहा गया है कि कुछ पेट्रोलियम पदार्थ साइट से एकत्र सैंपल में पाए गए, और इस बात पर कि दो जेरी-कैन में पेट्रोल मिला था। जैसा कि ऊपर हमने बताया है, यह सैंपल खुद ही भरोसेमंद नहीं था, क्योंकि सैंपल एकत्र किए जाने से पहले ही अपराध स्थल पर सैकड़ों लोगों द्वारा दौरा किया गया था।

23 फ़रवरी 2003 – पेट्रोल पंप कर्मचारियों यू-टर्न करना

गोधरा घटना के समय कालभाई के पेट्रोल पंप पर कार्यरत दो सेल्समैन प्रभातसिंह पटेल और रणजीत सिंह पटेल, ने पहले पुलिस को कहा था कि उन्होंने उस अवधि के दौरान किसी को भी खुला पेट्रोल नहीं बेचा था।

पुलिस ने 23 फरवरी, 2003 को फिर से दोनों से संपर्क किया। अपने पिछले बयान से पूरी तरह से पलटते हुए, इन दोनों ने अब दावा किया कि उन्होंने रज़्ज़ाक कुरकुर और सलीम पानवाला सहित छह मुस्लिम व्यक्तियों को वे 140 लीटर पेट्रोल बेचा था। उन्होंने अब ये कहा कि सिराज लाला, सलीम पानवाला , जाबिर बिन्यामिन बहेड़ा, सलीम ज़ार्डा और शौकत बाबू एक तोता रंग के टेम्पो में आये थे, जबकि रज़्ज़ाक कुरकुर एक एम-80 स्कूटर पर इनके आगे आए थे।

4 सितंबर 2004 – यूसी बनर्जी समिति की नियुक्ती 

नरेंद्र मोदी ने नानावटी आयोग पहले से ही के नियुक्त किया था। 2004 में जब केंद्र में यू.पी.ए. की सरकार सत्ता में आई तो केंद्र द्वारा किसी भी अन्य जांच आयोग बैठाये जाने से पहले ही मोदी ने नानावटी आयोग की संदर्भ की शर्तों (टर्म्स ऑफ़ रेफरन्स) का विस्तार कर डाला, और इस तरह से केंद्र के रास्ते में गुजरात मुद्दे पर कोई भी जांच कार्रवाई करने से बाधा डाल दी, क्योंकि कानूनन एक ही समय पर एक ही चीज़ के लिए दो जांच आयोग गठित नहीं किये जा सकते हैं।

लेकिन, रेलवे अधिनियम की धारा 6(C) के अनुसार, यदि रेलवे पर किसी भी दुर्घटना के कारण जीवन की हानि, या लोग गंभीर रूप से घायल, या रेलवे संपत्ति के लिए एक बड़ा नुकसान होता है,  तो इस अधिनियम के तहत सुरक्षा के आयुक्त द्वारा उसकी जांच कराये जाना अनिवार्य है । भाजपा के नेतृत्व वाली राजग(एन.डी.ए.) केंद्र सरकार के तहत रेल मंत्रालय द्वारा यह जांच नहीं की गयी थी।

यूपीए केंद्र सरकार ने रेल अधिनियम का फायदा उठाकर गोधरा आग की एक स्वतंत्र जांच करने की कोशिश की। 4 सितंबर, 2004 को पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज यू.सी. बनर्जी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।

जनवरी 2005 – यूसी बनर्जी समिति प्रस्तुत रिपोर्ट

उपलब्ध गवाही के आधार पर, समिति को यह एकदम अविश्वसनीय लगा कि “त्रिशूल” के साथ सशस्त्र कार सेवकों (कुल यात्रियों में से 90 प्रतिशत तक), की इतनी भारी भीड़ की मौजूदगी में एक व्यक्ति के बाहर से  कोच एस -6 में इतनी आसानी से घुस सकता है, और कोच में बिना किसी भी विरोध के आग लगा सकता है । रिपोर्ट में फोरेंसिक प्रयोगशाला के प्रयोग का भी उल्लेख किया और उसके निष्कर्ष को सही माना है कि बाहर से गाड़ी में आग लगाना असंभव था। समिति ने किसी भी बिजली के शॉर्ट सर्किट होने की भी जांच की और आग के कारण के रूप में शार्ट सर्किट की संभावना से इनकार किया।

समिति के समक्ष कार सेवकों द्वारा कोच के अंदर खाना पकाने के कुछ सबूत भी पेश किये गए थे।

‘पेट्रोल द्वारा बाहर से आग लगने’, ‘शरारती तत्वों द्वारा घुस कर आग लगाए जाने’ ‘बिजली से आग’ की किसी भी संभावना के उन्मूलन के साथ, न्यायमूर्ती यूसी बनर्जी ने निष्कर्ष निकाला कि साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आग को फिलहाल एक “अकस्मात आग” माना जा सकता है। [9]

उन्होंने रेल प्रशासन की भी इस बात के लिए बहुत की आलोचना की है, कि घटना के महत्वपूर्ण सुराग को संरक्षित करने के लिए उसने कोई भी प्रयास नहीं किया है था। विशेष रूप से, समिति ने इस बात की निंदा की, कि सबूत का एक महत्वपूर्ण टुकड़ा होने के बावजजूद एस-7 कोच, जिसको कुछ नुकसान भी पहुँचा था, अहमदाबाद के लिए आगे यात्रा पर रवाना कर दिया गया था।

वास्तव में, एस 7 के क्षतिग्रस्त हिस्से को स्क्रैप के रूप में बेच दिया गया था!  S6 कोच का वेस्टब्यूल मजबूत रबर सामग्री का बनाया गया था जिसको किसी चाकू से काटना असंभव था। गुजरात पुलिस ने दावा किया था कि हमलावरों कोच S7 के कैनवास के वेस्टब्यूल को काटा था, लेकिन इस महत्वपूर्ण सबूत को नष्ट कर दिया गया था। यहां तक कि अगर गुजरात पुलिस के दावे में कोई सच्चाई भी थी,तो भी उसे निश्चित रूप से साबित करने का कोई रास्ता नहीं था। आखिर रेलवे सबूत के इस टुकड़े को क्यों नष्ट किया? मैंने रेल यात्राओं में यार्डों के बाहर दुर्घटनाओं से क्षतिग्रस्त बहुतेरे कोच देखें हैं, जो किसी यार्ड में जंग खाते रहते हैं, इसलिए इस मामले में इसे जल्दी से बेच दिये जाने का कारण क्या था?

समिति ने पश्चिम रेलवे के पूरे प्रशासन की आलोचना की है कि उसने अपनी तरफ से एक प्रारंभिक जांच भी किये बिना ही, इस मुद्दे पर अपने विचार बना लिए । यह उल्लेखनीय है कि सरकार की सेंट्रल फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी के पूर्व निदेशक और इंटरपोल के सदस्य वी.एन. सहगल, जिन्होंने एक नागरिक समाज समूह के लिए गोधरा तक नामक एक वृत्तचित्र में एक स्वतंत्र सलाहकार के रूप में सबूत की जांच की, 2003 में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे थे. [10]

गुजरात में इस वृत्तचित्र पर प्रतिबंध लगा दिया  है, और विहिप द्वारा भारत के अन्य स्थानों पर इसके प्रदर्शन को बाधित किया गया है। कुछ प्रासंगिक अंश आप यहाँ नीचे देख सकते हैं।

 वी.एन. सहगल

अक्टूबर 2006 – बनर्जी समिति के साथ क्षेत्राधिकार के मुद्दे 

इस समिति की नियुक्ति को एक विहिप कार्यकर्ता द्वारा गुजरात उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीएन पटेल ने इस पर फैसला सुनाया है कि जब पहले से ही एक और आयोग द्वारा इसकी जांच की जा रही है, तो ना ही जांच आयोग अधिनियम के तहत और न ही भारतीय रेलवे अधिनियम के तहत, रेल मंत्रालय के पास एक समिति की नियुक्ति करने का अधिकार था।

इसलिए अधिकार क्षेत्र में ओवरलैप के तकनीकी आधार पर बनर्जी समिति के गठन को अवैध पाया गया, और उसे अपनी रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत किये जाने से रोक दिया गया। यहाँ पर यह समझ लेना महत्वपूर्ण है कि इस फैसले में न्यायमूर्ति बनर्जी के निष्कर्ष को सही या गलत नहीं कहा गया है, सिर्फ इतना है कि गुजरात उच्च न्यायालय के अनुसार इस समिति के गठन की प्रक्रिया नियमों का उल्लंघन कर रही थी ।

17 जुलाई 2007 – तहलका का पर्दाफाश

तहलका के अंडरकवर संवाददाता आशीष खेतान ने छह महीने की अवधि के लिए गुजरात के विहिप, आरएसएस और भाजपा के लोगों के अंदर गहरी घुसपैठ कर डाली। उन्होंने खुद को हिंदुत्व पर किताब लिख रहे एक आरएसएस कार्यकर्त्ता के रूप में पेश किया। अहमदाबाद में कई संघ परिवार और भाजपा के नेताओं से मुलाकात के बाद पंचमहल जिले (गोधरा पंचमहल में है) के एक प्रभारी भाजपा नेता ने उनकी मुलाकात काकुल पाठक से कराई जो गोधरा के नौ भाजपाई गवाहों में से एक थे। पाठक ने दो बार बैठक और गोधरा में भाजपा की आंतरिक राजनीति से खुद को अवगत करा लेने के बाद, आशीष खेतान ने मुरली मूलचंदानी (ये भी नौ भाजपा गवाहों में से एक थे) को फोन किया, और खुद को एक आरएसएस आदमी के रूप पेश किया जो गुजरात भर में यात्रा करके मतदाताओं के मूड का आकलन कर रहा था । [11]

पाठक ने भयानक सच्चाई सामने रखी  कि कैसे उसने और अन्य आठ भाजपा सदस्यों ने पुलिस के साथ निर्दोष मुसलमानों को फंसाने के लिए सांठगांठ की थी। अदालत में अपने बयान के विपरीत, पाठक ने कहा कि न तो वह और न ही अन्य आठ भाजपाई गवाह घटनास्थल पर कोच में आग लगाए जाते वक़्त मौजूद थे। सच तो यह था की जब पाठक मौके पर पहुंचे तो उस समय भीड़ तितर-बितर हो चुकी थी। वास्तव में पाठक को पता भी नहीं था कि पुलिस ने उसके नाम से एक बयान दर्ज़ कर डाला था और उसे एक गवाह बनाया था. लेकिन जब उसे अपने इस बयान के बारे में पता चला, उसने पूरी तरह से पुलिस का समर्थन किया। पुलिस के साथ शामिल होकर, पाठक ने अपने इस तथाकथित “बयान” में अपराधियों के रूप में नामित दो लोगों की पहचान पुलिस द्वारा सामने लाये गए चेहरों में की।

वह जानता था कि ये दोनों अपराध में शामिल नहीं थे, लेकिन उसने उन दोनों को फिर भी यह सोचकर आरोपित किया कि यह “हिंदू समाज” के प्रति उसका कर्तव्य था।

“ये हिंदुत्व का काम है …जो पार्टी बोलेगी वो करने का है ” –

पाठक ने तहलका को बताया।

एक और चौंकाने वाला तथ्य ये सामने आया, गोधरा नगर परिषद के वर्तमान उपाध्यक्ष मुरली मूलचंदानी ने अंडरकवर तहलका संवाददाता को बताया कि वह वास्तव में घटना के समय में घर में सो रहा था । फिर भी काकुल पाठक की तरह उसने भी पुलिस के साथ सहयोग किया, और जब उसका नाम चश्मदीद गवाह के तौर पर शामिल किया गया तो उसने कोई विरोध नहीं किया।

पेट्रोल पंप कर्मचारी प्रभातसिंह पटेल और रणजीत सिंह पटेल-  जिन्होंने एक पूर्ण यू-टर्न में दावा किया था कि उन्होंने अभियुक्तों को 140 लीटर पेट्रोल बेचा – अब 24 घंटे पुलिस निगरानी में रहते हैं। अपने पुलिस बयान के बाद उन्होंने पेट्रोल पंप नौकरियों को छोड़ दिया और गोधरा शहर से लगभग छह मील दूर अपने गांव, सापा सिगवा में रह रहे हैं। जब तहलका संवाददाता ने प्रभातसिंह से मिलने की कोशिश की, तो उसके परिवार उन्हें मिलने नहीं दिया।

हालांकि,सौभाग्यवश तहलका दुसरे गवाह, महाराजा रणजीत सिंह पटेल तक पहुँचने में सफल हुआ। 16 जुलाई, 2007 को तहलका रिपोर्टर जब एक बजरंग दल के आदमी के रूप में रणजीत सिंह के गाँव पहुँचा, तो रणजीत पर लगातार निगरानी रखने वाले दो पुलिसकर्मी चाय पीने के लिए चले गए थे, और रणजीत अपना खेत जोत रहा था। कुछ प्रारंभिक आशंका के बाद, रणजीत सिंह ने रिपोर्टर से कहा कि उसे नोएल परमार द्वारा 50,000 रुपये का भुगतान किया गया था।

इस बात के महत्व पर ग़ौर फरमाइए। सबसे प्रमुखगवाहों में से एक, जिसकी गवाही  पर  पुलिस का सारा केस टिका हुआ है , ने यह स्वीकार किया कि मुख्य जांच अधिकारी ने उसे रिश्वत दी थी। उसने यह भी कहा कि इसी तरह की राशि का भुगतान उसके सहयोगी प्रभातसिंह के लिए भी किया गया था। उसने यह भी कहा कि परमार ने उन्हें बताया था कि जब अदालत में आरोपी की पहचान करने का समय आएगा, तो परमार उसे और रणजीत सिंह को आरोपी की शक्ल पहले ही चुपके से दिखा देगा ताकि ये दोनों उनके चेहरे याद रखें और अदालत में उन्हें पहचान सकें।

प्रमुख गवाह अजय बारिया गुजरात पुलिस के संरक्षण में रह रहा था, और आशीष खेतान उस तक पहुँच पागे में असमर्थ रहे। हालांकि, बारिया की माँ ने आशीष खेतान से कहा कि उसका बेटे डर से एक पुलिस गवाह बन गया था । उन्होंने कहा कि गोधरा स्टेशन पर घटना के समय अजय घर पर था और गहरी नींद सो रहा था। उसने यह भी कहा कि पुलिस बारिया उसके पास आने नहीं देती है, और ना ही बार बार गोधरा में आने के लिए अनुमति देती है।

तहलका स्टिंग का सारांश:

  • नोएल परमार एक बहुत ही सांप्रदायिक अधिकारी था और मुसलमानों के खिलाफ घृणा और पूर्वाग्रह वाले विचार रखता था
  • पेट्रोल पंप सहायकों को जांच अधिकारी नोएल परमार ने रिश्वत दी थी।
  • गुजरात पुलिस के प्रमुख गवाहों,  जैसे कि  9 स्थानीय भाजपा नेताओं ने अदालत में झूठ बोला था।
  • “सर्वज्ञानी” सरकारी गवाह अजय बारिया, अपनी मां के अनुसार, अपराध के समय वहाँ मौजूद ही नहीं था।

सितंबर 2008 – नानावती आयोग – भाग 1

सितम्बर 2008 में, नानावती आयोग की रिपोर्ट के गोधरा घटना से सम्बंधित “भाग 1” को प्रकाशित किया गया.  [12]इसमें गुजरात पुलिस द्वारा समर्थित पूर्वनियोट्ज षड्यंत्र की बात तो समर्थन दिया गया। गोधरा के एक मौलवी, मौलवी उमरजी, और एक रिटायर्ड सीआरपीएफ अधिकारी नानुमियाँ को आपरेशन के पीछे के “मास्टरमाइंड” के रूप में प्रस्तुत किया गया। नानावटी गुजरात पुलिस के इस बात से सहमत है कि साजिशकर्ताओं द्वारा 140 लीटर पेट्रोल पहले से एकत्र किया गया था। रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला है कि ट्रेन पर हमला सिग्नल फलिया क्षेत्र के हजारों  मुसलमानों ने किया था

रिपोर्ट के मुताबिक, ट्रेन में आग लगाना प्रशासन में “डर की भावना पैदा करने” और राज्य में “अराजकता” फैलाने के लिए एक “बड़े षड्यंत्र” का हिस्सा था।

फरवरी 2011 – निचली अदालत में कथित मुख्य षड्यंत्रकारी बरी

पंचमहल जिले के निचली अदालत के 31 लोगों को दोषी करार दिया और 63 अन्य लोगों को बाइज़्ज़त बरी कर दिया। मौलवी उमरजी – जिनपर मुख्य षड्यंत्रकारी होने का आरोप था, को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया था। आखिर मुख्य षड्यंत्रकारी सहित इतने सारे लोग क्यों बरी हो रहे थे?

वास्तव में, सवाल शायद ये होना चाहिए, कि आखिर पुलिस की तरफ से इतनी घटिया और पक्षपातपूर्ण जांच, जिसमे इतने सारे झूठ तहलका स्टिंग आपरेशन द्वारा एक्सपोज़ हो चुके थे, के बाद बाकी लोगों को अभी भी सजा क्यों सुनाई गयी ?

सत्र न्यायाधीश पीआर पटेल की कुछ टिप्पणियों से, जो की कानून के मूलभूत उसूलों की धज्जियाँ उड़ा देते हैं, से हमें न केवल इस सवाल का जवाब मिलता है,बल्कि भारतीय अदालतों में जजों की क्वालिटी पर भी एक गहरा सवाल खड़ा हो जाता है।

न्यायाधीश पीआर पटेल ने अपने फैसले में कुछ पुराने मामलों से मिसालें उठाकर, सबूत की स्वीकृति के लिए सिद्धांतों पर काफी कुछ कहा:[13]

एक जज एक आपराधिक मुकदमे की सुनवाई सिर्फ इसलिए नहीं करता है, केवल ये देखने के लिए कि कोई निर्दोष आदमी को दंडित नहीं किया जाए। एक जज को यह भी देखना है कि एक दोषी आदमी बच ना पाए। दोनों ही उसके कर्तव्य हैं।

“भले ही सौ गुनहगार बच  जाएँ, एक बेगुनाह को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए” के इस सिद्धांत पर चल कर न्याय को नपुंसक नहीं बनाया जा सकता। गुनहगार को बचने देन कानून के अनुसार न्याय नहीं है।

सबूत का समुउचित संदेह से परे (Beyond Reasonable Doubt) होना है मात्र एक निर्देश है और इस पर कायम रहना कोई ज़रूरी नहीं।

न्यायाधीश पीआर पटेल पेट्रोल पंप परिचारिकाओं को नोएल परमार द्वारा 50,000 रुपए की रिश्वत भुगतान की रक्षा दलील को इस आधार पर खारिज कर दिया कि

एक जांच अधिकारी द्वारा प्रत्येक गवाह को 50,000/- रुपये के भुगतान की कहानी अत्यधिक असंभव है।

 

कोई विवेकी मनुष्य, अपने बिना पूरे भविष्य के जीवन के बारे में सोच के झूठी गवाही देने के इस तरह से भारी संख्या के मुस्लिम समुदाय से संबंधित आरोपियों के खिलाफ एक महान जोखिम लेने की हिम्मत नहीं करेगा ।

उन्होंने यह भी एक टिप्पणी (p147), जिससे पता चलता है कि उन्हें भी पुलिस के पूरे केस के बारे में संदेह है।

अभियोजन पक्ष द्वारा कहानी को बढ़ा चढ़ा कर पेश किये जाने से भी पूरी घटना का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता, जो मौके पर गवाहों द्वारा सिद्ध किया गया है। ये मुमकिन है कि घटना दरअसल कुछ हद तक अलग तरीके से शुरू हुई हो, लेकिन अपराध किये जाने का तथ्य, जब गवाहों ने साबित कर दिया है, तो पुलिस के केस को केवल इस आधार पर बाहर नहीं फेंक दिया जा सकता है कि पुलिस ने घटना के प्रारंभ होने की कहानी को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया है।

उसका सारांश घटनाओं के लिए पुलिस की कहानी, और साजिश को भी स्वीकार करता है

[14] चूंकि हमलावर जल चिथड़े आदि फेंककर कोच आग लगाने में सफल नहीं हो सके, कुछ हमलावरों को बाहर एक और रास्ता मिल गया और कोच एस-7 के कैनवास वेस्टिब्यूल काटने के बाद, एस-6 कोच के पूर्वी हिस्से में स्लाइडिंग दरवाजा खोलने में सफल हुए और जबरन कोच में प्रवेश करने के बाद, कोच एस -6 का दक्षिण-पूर्व कोने दरवाजा खोल दिया गया, जिसमें से कुछ अन्य लोगों ने पेट्रोल युक्त जेरी-कैन के साथ प्रवेश किया, पूरे कोच में पर्याप्त पेट्रोल डाला और फिर एक जलते हुए कपड़े से कोच एस-6 में आग लगा डाली।

सत्र अदालत के न्यायाधीश का ये निष्कर्ष सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश यूसी बनर्जी द्वारा उठाए गए एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल का जवाब नहीं दे पाता। आखिर सिर्फ चंद हमलावर बिना कारसेवकों की भारी भीड़ द्वारा किसी भी प्रतिरोध के, एक कोच में इतनी आसानी से घुस कर पेट्रोल कैसे डाल सकते है?

[28] प्लेटफार्म पर हुए झगड़े और कारसेवकों द्वारा मुस्लिम लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार का लाभ उठाते हुए , फरार आरोपी सह-षड्यंत्रकारी सलीम पानवाला और आरोपी महबूब अहमद @लातिको चिल्लाने लगे , सिग्नल फलिया के आसपास के इलाके के मुस्लिम लोगों को बुलाये, ये भ्रामक अफवाह फैलाई कि ट्रेन के कारसेवकों द्वारा मुस्लिम महिला अपहरण किया गया था, और चेन खींच कर ट्रेन को रोकने के निर्देश दिए।

यानी कि आरोपियों की इस साजिश की पूरी प्लानिंग के सफल होने के लिए ये ज़रूरी था की पहले प्लेटफार्म पर झगड़ा हो? मुट्ठी भर लोगों द्वारा पिछली ही रात को बनाई गयी यह साजिश, इस पर निर्भर करती थी कि पहले कारसेवकों के द्वारा लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाएगा? अभियुक्तों को कैसे पहले से ही ये  यकीन था की ऐसा ज़रूर ही होगा ? वो ट्रैन के निर्धारित समय, रात के २ बजे, कैसे ये भीड़ जमा करने वाले थे?[14]

उमरजी – कथित तौर पर मामले में मुख्य षड्यंत्रकारी

उमरजी गोधरा के सबसे सम्मानित मौलवियों से एक थे। 1965, ’69, ’80 और ’89 में सांप्रदायिक दंगों के दौरान, उमरजी जिला प्रशासन द्वारा गठित शांति समितियों के सदस्य रह चुके थे। साबरमती एक्सप्रेस की घटना के बाद भी, वह गोधरा में कई महीनों के लिए दंगा पीड़ितों के लिए एक राहत शिविर चलाने के लिए जिला प्रशासन द्वारा अनुमति प्राप्त करने वाले वो इकलौते स्थानीय मुस्लिम नेता थे। घटना के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा, और फिर रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस की तरह गणमान्य व्यक्तियों ने जब गोधरा के दौरे किये, उन्होंने इन सबसे मिलने के लिए प्रतिनिधिमंडलों का भी नेतृत्व किया था । 4 अप्रैल 2002 को, जब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ गोधरा का दौरा किया, तो मौलवी उमरजी उसे एक ज्ञापन दिया। हालांकि, उन्होंने उस ज्ञापन की एक प्रति मोदी को सौंपने से इनकार किया।[15]

प्रधानमंत्री के सामने मुसलमानों के साथ सुलूक के बारे में खुलकर बोलने के साथ, और गोधरा से गिरफ्तार लोगों के परिवारों के लिए खुलकर मदद करने के लिए, वह एक समय में, जब पूरे समुदाय को दबा दिया गया था, गुजरात के मुसलमानों की निडर और दिलेर चेहरा बनकर सामने आये थे।

घटना के बारे में उनकी निंदा और समाचार पत्रों के लिए भेजा शांति के लिए अपील को रिपोर्ट नहीं किया गया।

ऐसे शख्स को, हिरासत में एक अपराधी द्वारा दिए गए बयान के आधार पर, ट्रेन जलने के “मास्टरमाइंड” के रूप में गिरफ्तार कर लिया गया. सम्भवतः पुलिस द्वारा यातना से उगलवाया गया एक ऐसा बयान जिससे वह अपराधी भी एक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किये जाने पर मुकर गया था।

अगले ही दिन, मीडिया पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मुल्ला उमर के साथ संपर्क, उग्र उपदेश, छिपे हुए धन आदि  की भयंकर कहानियों के साथ इनके पीछे पागलों की तरह पड़ गया … इन सभी कहानियों में मौलाना के चेहरे का एक गुस्से वाले फोटो का क्लोज़-अप था, ताकि आपके दिमाग में “जेहादी देश-विरोधी मुल्ला” वाली की स्टीरियोटाइप छवि सामने आ जाए. इस तरह की इस कवरेज का ऐसा प्रभाव था कि जब उन्हें आठ साल बाद बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया था, गुजरात भर में हिंदुओं ने पुलिस और और जज को एक “मास्टरमाइंड” के छूट जाने पर गालियां सुनायीं।

उन्होंने अप्रैल 2002 में एक संवाददाता से कहा था कि ,

“लेकिन जब वे हमारी देशभक्ति पर सवाल खड़ा करते हैं तो मुझे गुस्सा आता है। मेरा अपना गुरु छह साल के लिए माल्टा में जेल में थे। ब्रिटिश उसे छोड़ने का लालच दिए थे,अगर वह केवल गांधीजी का साथ छोड़ दें । उसने नकार दिया।

 

“मुझे डर है देश इनके हाथों में सुरक्षित नहीं है। यह बर्बाद हो जाएगा। “

 

“यदि आपको सामाजिक सेवा का कार्य करने के लिए यह इनाम मिलता है, तो फिर भगवान ही बचाये इस देश को।”

13 जनवरी 2013 को मौलवी उमरजी की ब्रेन हेमरेज से मृत्यु हो गई।

लड़की के अपहरण की “क्रिया-प्रतिक्रिया”

किसी भी समय पर, वहाँ गोधरा स्टेशन पर कुछ 250 फेरी वाले हुआ करते थे। तो फिर सिग्नल फलिया इलाके से एक बड़ी भीड़ इतनी जल्दी कैसे और क्यों इकट्ठा हो गयी? यहां तक ​​कि अगर हम ये भी मान लें की ये चंद लोगों की एक साजिश थी, जैसा की आरोप लगाया गया, ज़ाहिर बात है कि ऐसी भीड़ इकट्ठा करने के लिए किसी वजह पर लोगों को भड़काने की जरूरत है।

कई गवाह खातों के अनुसार, गोधरा में मुस्लिम भीड़ शुरू में उत्तेजित इसलिए हुई थी, क्योंकि वहाँ कार सेवकों द्वारा सोफिया बानो नामक एक मुस्लिम लड़की को ट्रेन पर खींचकर ले जाने की एक अफवाह फ़ैल गयी थी। और यही मुख्य कारण था की भीड़ ने सिर्फ कोच S6 को निशाना बनाया था।

सोफिया बानो का बयान, जो नानावती आयोग की रिपोर्ट में शामिल है, के अनुसार, वह जहां बैठी थी, उसके नज़दीक कुछ भगवा हेडबैंड पहने हुए पुरुषों एक दाढ़ी वाले आदमी को पीटा था।

इसके बाद, मेरी माँ, बहन और मैं मुसाफिरखाना की ओर जाना शुरू कर दिया। इस समय, उसी में से एक आदमी के पीछे से आया और अपने हाथों से मेरे मुंह को दबाया और उसने मुझे ट्रेन के कोच की ओर खींचेंने के लिए कोशिश की। जब मेरी माँ ने ये देखा, उसने “बचाओ … बचाओ” चिल्लाया। इसके बाद, जो आदमी मुझे पकड़ लिया था, मुझे जाने दिया। हम बहुत डरे हुए थे और बुकिंग क्लर्क केऑफिस के अंदर छुप गए।

सोफिया बानो का बयान

नानावटी-शाह आयोग ने सोफिया बानो की गवाही को अस्वीकार कर दिया। जिस आधार पर यह किया वो आश्चर्यजनक ही नहीं शर्मनाक भी है। आयोग कहता है कि अपहरण का ये प्रयास “इस तरह इतना भय पैदा करने के लिए नहीं” था। और तो और, उसने ये भी कहा

“यह मानना मुश्किल है कि एक रामसेवक एक घांची मुस्लिम लड़की को अगवा करने का प्रयास किया होगा”

कई गवाहों के अनुसार, बुकिंग कार्यालय के अंदर सोफिया के छिपने से ही ये गलतफहमी फ़ैल गयी कि उसका अपहरण किया गया था ।

सहायक स्टेशन मास्टर हरिमोहन मीणा केबिन ए को संभाल रहे थे, और अपराध के दृश्य के सबसे करीब थे। तहलका के अंडरकवर रिपोर्टर उनसे खुद को एक रिसर्च स्कॉलर के रूप में पेश करके मिले। मीना – जिन्हें ये पता नहीं था कि वह एक पत्रकार से बात कर रहा था या रिकॉर्ड किया जा रहा – ने कहा कि जब वह नीचे आया और भीड़ से ट्रेन का पीछा करने का कारण पूछा, तो भीड़ से कुछ लोगों ने कहा कि उनके लोगों में से एक का ट्रेन पर मौजूद कारसेवकों द्वारा अपहरण किया गया था। उसने भीड़ के पास कोई तलवार, किसी अन्य तेज हथियार या ज्वलनशील सामग्री नहीं देखी। इसके विपरीत, उसके अनुसार, भीड़ मुख्य रूप से महिलाओं और बच्चों की थी जो लाठी लिए हुए थे, और पत्थर फेंक रहे थे।

हम अक्सर देखते हैं की हिंदूत्व के कट्टरपंथी गुजरात में नरसंहार को “पोस्ट-गोधरा दंगों” के रूप में संदर्भित करके उचित ठहराने का प्रयास करते हैं, वहीं हमने गोधरा की घटना को मुसलमानों द्वारा एक “लड़की से छेड़छाड़ के बाद की प्रतिक्रिया” कहा जाते हुए कभी नहीं देखा है।

अन्य सवाल

यह वीडियो वीएन सहगल की जांच की है और आपको अपराध के दृश्य का एक चित्र देती है, और भीड़ के जमा होने के बारे में भी जानकारी देता है।

 भीड़ के जमा होने की जगह

इस साज़िश के बारे में ऐसे कई सवाल हैं जो ठीक से समझाये नहीं किया गए हैं

  • इसका साफ़ नहीं है कि षड्यंत्रकारियों को कारसेवकों के पूर्णाहुति महायज्ञ के सिर्फ 2 दिन के बाद अयोध्या से वापस जाने की यात्रा की योजना की जानकारी कैसे थी।
  • क्या हमारे पास इस बात के कोई भी निर्णायक सबूत हैं की यदि ट्रेन 5 घंटे देर से आने के बजाय, सही समय पर रात के 0155 बजे पहुँचती तो आखिर योजना क्या थी? ये आरोपी बीच रात में कैसे भीड़ जुटाने का इरादा रखते थे?
  • ट्रेन में कारसेवकों की भीड़ द्वारा चुनौती के बिना ही कैसे वेस्टिब्यूल में छेद किया जा सका, और लोग अंदर घुस सके? सभी गवाहों के अनुसार एस-6 कोच में बहुत ज्यादा भीड़ थी। कोच में यात्रियों की संख्या अपनी सामान्य क्षमता से कम से कम तीन गुना थी। चश्मदीद गवाह के अनुसार लगभग 250 यात्री थे, स्वाभाविक है की ये शौचालय के पास के इलाके, और वेस्टीब्यूल तक फैले होंगे, और किसी को आसानी से चलने की जगह भी नहीं मिलेगी। ऐसे में आरोपी कैसे सीट-72 तक जाकर पेट्रोल छिड़क सकते थे?
  • गोधरा कोच-योजनाबद्ध
  • ट्रेन के दक्षिण की ओर की एक संकरे तटबंध (ऊंचा बांध) के छोटे से क्षेत्र में कितनी भीड़ इकट्ठा हो सकती है ? कोच S9 सड़क के ज्यादा करीब था, और कोच S6 पश्चिम की और 200 मीटर दूरी पर जाकर रुका था,भीड़ सिर्फ S6 पर भी हमले क्यों करेगी , जबकि कारसेवक सभी डिब्बों पर मौजूद थे? ऊपर से 2000 व्यक्तियों के इकट्ठा होने लिए कोई जगह नहीं थी, यदि वास्तव में वहाँ इतने लोग जमा हुए थे, तो ये भीड़ कोच एस -6 की लम्बाई से कहीं अधिक क्षेत्र में फैल गयी होती । अगर सरकार की कहानी सही थी, तो अन्य डिब्बों पर भी कोच एस-6 के बराबर हमला होता। इसके अलावा, गवाह बारिया का दावा है कि वे पहले एस-2 पर आग लगाने की कोशिश की है, जो पश्चिम की ओर सड़क से और भी 300 मीटर की दूरी था।

 

कोच S6 सड़क के एकदम पास नहीं था, कोच S2 और भी दूर था

 

उपसंहार

यह स्पष्ट है कि गोधरा सामुदायिक रूप से संवेदनशील है। यह हम सब मानते हैं कि गोधरा के मुसलमान, दुर्भाग्य से देश के कई भागों में हिंदुओं और मुसलमानों की तरह ही, भड़कावे में आकर एक भीड़ के रूप में जमा हो सकते हैं, और हिंसात्मक काम कर सकते हैं। इस बात पर सवाल नहीं किया जा सकता है कि वे फरवरी 27 2002 को इकट्ठा हुए , और उन्होंने साबरमती एक्सप्रेस पर बहुत भारी पथराव किया।

विवादास्पद सवाल यह है कि क्या 59 व्यक्तियों को जिन्दा जलाये जाने का जघन्य कृत्य एक पूर्व नियोजित साज़िश थी और क्या वह उसी तरीके से अंजाम दी गयी  जैसे गुजरात राज्य सरकार की ओर से दावा किया गया ?

जाहिर है, आम तौर पर तो सिर्फ मुख्य जांच अधिकारी द्वारा एक सबसे अहम गवाह को बयान के लिए रिश्वत दिया जाना ही पुलिस के केस को खारिज करने के लिए पर्याप्त आधार हो गया होता। पेट्रोल पहले से बेचा जाना ही इस मामले में “षड्यंत्र” कोण का आधार था। जिस तरीके से की इस गंभीर मुद्दे प्रमुख गवाहों की छेड़छाड़  की लापरवाही से अवहेलना की गई है, विशेष रूप से जब गुजरात में न्याय के साथ इस तरह के खिलवाड़ के, बिल्किस बानो मामले जैसे कई उदाहरण हैं, बहुत ही अजीब और संदिग्ध है।

गोधरा गुजरात में उन चंद मामलों में से एक था में जहां हिंदुओं को निशाना बनाया गया था, और मोदी सरकार वास्तव में अपराधियों को दंडित करने के लिए बेहद उत्सुक थी।

उस सुबह, वहाँ गोधरा में आग लगने की सिर्फ एक सच्ची कहानी हो सकती है।

तो, सवाल उठता है, अगर गोधरा के एक पूर्व नियोजित साजिश होने का गुजरात सरकार के सिद्धांत वास्तव में सच था, अगर आग उसी तरह से लगी जैसे उनकी पुलिस ने दावा किया है, तो उन्हें गवाहों को रिश्वत का सहारा लेने की जरूरत क्यों पड़ी, उन्हें क्यों प्रमुख गवाहों के रूप में नौ भाजपा नेताओं पर निर्भर करने की जरूरत है  ? वे एक और अधिक पुख़्ता केस क्यों नहीं बना सके हैं, कम संदिग्ध गवाहों के साथ, एक ऐसी कहानी के साथ जो कि कम संदेहास्पद हो ? क्यों वे शुरू में बाहर से केरोसीन फेंके जाने की बात कर रहे थे? क्यों निचली अदालत से ही कथित “मास्टरमाइंड” समेत ज्यादातर आरोपियों को बरी कर दिया गया? जबकि ये एक ऐसी अदालत थी जो पुलिस के केस से बहुत सहानुभूति रखती थी!

फोरेंसिक सबूतों के आधार पर, वहाँ आग लगने के कारण की 2 संभावनाएं हैं[16]

  • आग वास्तव में, किसी तरह आरोपियों द्वारा पेट्रोल की एक बड़ी मात्रा डालने की वजह से लगी थी।
  • आग एक दुर्घटना से लगी, कुछ ज्वलनशील सामग्री (FSL रिपोर्ट के अनुसार कम से कम 60 लीटर) जो कार सेवकों, यात्रियों आदि द्वारा खुद ले जाई जा रही हो, जैसा सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश यूसी बनर्जी, वीएन सहगल द्वारा, या जैसा आईआईटी दिल्ली द्वारा एक ट्रेन के कोच में लगी एक और आग के साथ गोधरा के तुलनाएक अध्ययन में पता चला है।[17]

गोधरा कोच-दिल्ली-कोच

सत्र न्यायालय ने इस मामले को अपने हाथ लगभग एक दशक लग गए। अब यह उच्च न्यायालय में लटका हुआ है। आरोपित मास्टरमाइंड मौलवी उमरजी, जिन्हें हिरासत में 9 साल रखने के बाद बरी कर दिया गया था – अब मर चुके हैं। इस सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुने जाने तक शायद और २०  जाएँ, तब तक हो सकता है, इससे संबंधित बहुत से लोग वैसे भी मर चुकें होंगे।

रैख़स्टाग की आग के बाद जर्मन लोग घृणा से भरे हुए थे, और नाजी प्रोपगैंडा के चुंगल में फंस गए. उन्होंने सवाल पूछने पर ध्यान नहीं दिया, एक निष्पक्ष और वैज्ञानिक तरीके से सत्य की तलाश नहीं की। इस आग ने हिटलर को सत्ता में आगे बढ़ाया। जब तक उन्हें इसकी साजिश के बारे में सच्चाई का पता चला, बहुत देर हो चुकी थी। हिटलर ने पहले से ही सत्ता पर कब्जा कर लिया था, देश को राष्ट्रवादी अंधराष्ट्रीयता की ओर झोंक दिया था, और अंत में उसे बर्बाद कर दिया था। क्या इतिहास गोधरा की आग के साथ भी ऐसा ही कोई फ़ैसला देगा?

जो लोग इतिहास को भूल जाते हैं, वो इतिहास दोहराने के लिए अभिशप्त हैं -संतायना

संदर्भ

1.
The Ayodhya game . 2017. frontline. http://www.frontline.in/static/html/fl1903/19031260.htm. Accessed August 13.
2.
rediff.com: Purnahuti yagya ends peacefully in Ayodhya. 2017. rediff. http://www.rediff.com/news/2002/jun/02ayo.htm. Accessed August 13.
3.
Popham, Peter. 2002. The hate train. The Independent. March 20. [Source]
4.
Navigation News | Frontline . 2017. Frontline. http://www.frontline.in/navigation/?type=static&page=flonnet&rdurl=fl1915%2F19150110.htm. Accessed August 13. [Source]
5.
Godhra attack not planned – Times of India. 2017. The Times of India. http://timesofindia.indiatimes.com/india/Godhra-attack-not-planned/articleshow/5102464.cms. Accessed August 13.
6.
Noel refuses to turn up for – Times of India. 2017. The Times of India. http://timesofindia.indiatimes.com/city/ahmedabad/Noel-refuses-to-turn-up-for/articleshow/4653630.cms. Accessed August 13.
7.
Godhra bogie was burnt from inside: Report – Times of India. 2017. The Times of India. http://timesofindia.indiatimes.com/india/Godhra-bogie-was-burnt-from-inside-Report/articleshow/14794899.cms. Accessed August 13.
8.
The Hindu : “Inflammable material was poured from inside the compartment” . 2017. The Hindu. http://www.thehindu.com/2002/07/04/stories/2002070404781100.htm. Accessed August 13.
9.
Bannerji, UC, and Poornima Joshi. 2005. “It Is Quite Impossible That Petrol Was Thrown From Outside Into The Coach.” Outlook. February 21. [Source]
10.
Chakravorty, Shubhradeep. 2013. Gujarat Riots (Godhra incident): A forgotten story (Report of Dr. V. N Sehgal). YouTube. May 19. [Source]
11.
Khetan, Ashish. 2007. Twice Burnt Still Simmering. Tehelka. November. [Source]
12.
Full Text of the Report by Commission of Enquiry Consisting of Justice Nanavati and Justice Mehta – South Asia Citizens Web. 2017. sacw.net. http://www.sacw.net/article101.html. Accessed August 13.
13.
Patel, PR. 2017. Godhra Case Judgement. none. http://sanjeev.sabhlokcity.com/Misc/Patel-Judgement-godhra-train-1-march2011.pdf. Accessed August 13.
14.
Khetan, Ashish. 2011. Burn after reading. tehelka.com. March 5. [Source]
15.
He died a broken man. 2017. The Hindu. http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/He-died-a-broken-man/article12305701.ece. Accessed August 13.
16.
Questions about the Godhra case. 2017. rediff.com. http://www.rediff.com/news/2005/feb/07spec1.htm. Accessed August 13.
17.
Mohan, Dinesh, AK Roy, Sunil Kale, and SN Chakravarty. 2006. Use of epidemiology in the public space: reconstruction of a train fire in India. African Safety Promotion: A Journal of Injury and Violence Prevention 4. African Journals Online (AJOL). doi: 10.4314/asp.v4i1.31583
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