गायब पुलिस रिकॉर्ड का रहस्य
यदि मोदी की मंशा वास्तव में एकदम साफ़ थी, और उन्हें कुछ भी छिपाने की ज़रुरत नहीं थी, तो फिर उनकी सरकार ने दंगों की अवधि के महत्वपूर्ण रिकॉर्ड नष्ट करने में असामान्य जल्दबाजी क्यों दिखायी, जबकि कई मामले अभी भी न्यायाधीन थे?
कुछ रिकॉर्ड सुप्रीम कोर्ट के कार्रवाई शुरू करने की बात करने के एक महीने के भीतर फिर से चमत्कारिक ढंग से क्यों वापस प्रकट हो गए?
2010 एसआईटी रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया था, कि 2002 के रिकॉर्ड नष्ट कर दिया गए हैं पृष्ठ पर 13, रिपोर्ट बताती है :
हालांकि इस जांच को भारत के माननीय सुप्रीम कोर्ट से अधिकार दिए गए थे, इसको जांच में कई कठिनाइयों/बाधाओं का सामने करना पड़ा, जिनमें से कुछ नीचे दी गई हैं
(1) वर्ष 2002 के पुलिस वायरलेस संदेश गुजरात सरकार के द्वारा उपलब्ध नहीं कराये गए, क्योंकि इन्हें कथित तौर पर नष्ट कर दिया गया था
(2) दंगों के दौरान सरकार द्वारा आयोजित महत्वपूर्ण कानून एवम व्यवस्था बैठकों के कोई अभिलेख/दस्तावेज़/मिनट नहीं रखे गए थे
(3) कुछ सरकारी कर्मचारियों, जो लंबे समय पहले सेवानिवृत्त हो गए थे, ने कुछ याद नहीं होने का दावा किया क्योंकि वे किसी भी विवाद में उलझना नहीं चाहते थे”
हालांकि, इनमे से कुछ पुलिस रिकॉर्ड रहस्यमय तरीके से 23 अप्रैल, 2011 को वापस प्रकट हो गए।[2]
यह सब मार्च 2011 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एसआईटी को रिकॉर्ड के विनाश केआरोप को आगे जांच करने के लिए कहने के तुरंत बाद हुआ! यह रिकॉर्ड का फिर से बाहर निकलना भी शुरू में से हर किसी से छिपा हुआ था और इसके बारे में केवल एसआईटी द्वारा मुख्य कार्यकर्ताओं में से एक से आगे की कार्रवाई पर एक चर्चा के दौरान ही पता चला। (?!)
“एक अजीबोगरीब लेकिन संभवत: दूरगामी विकास में , पीसी पांडे, जो 2002 नरसंहार के दौरान अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त थे, सुप्रीम कोर्ट-नियुक्त विशेष जांच टीम (एसआईटी) को उन रिकॉर्ड्स की स्कैन प्रतियां के 3,000 से अधिक पन्नों सामने रखा है।
यह परिवर्तन १५ मार्च को सुप्रीम कोर्ट के एसआईटी को आगे जांच का संचालन करने के लिए आदेश के बाद हुआ है क्योंकि एसआईटी के निष्कर्षों और नतीजों के बीच एक मेल नहीं दिख रहा था ।
अन्य अधिकारियों की तरह, पाण्डे, ने भी पहले एसआईटी से यही कहा था कि पुलिस रिकॉर्ड अब उपलब्ध नहीं थे क्योंकि समय बीतने के कारण उन्हें नष्ट कर दिया गया था। अधिकारियों ने कभी नहीं इन रिकार्ड्स के नष्ट किये जाने का कोई संतोषजनक और विश्वस्नीय स्पष्टीकरण नहीं दिए हैं, जिनका कि 2002 हिंसा से संबंधित आपराधिक जांच, मुकद्दमों और न्यायिक जांच पर एक महत्वपूर्ण असर हो सकता था.”
और, और भी दिलचस्प बात है, कि ये पुलिस रिकॉर्ड पीसी पांडे, जो दंगों के समय अहमदाबाद पुलिस आयुक्त के रूप में काम कर रहे थे, लेकिन बाद में सेवानिवृत्त हो चुके थे, के द्वारा दिए गए। यह महत्वपूर्ण सबूत एक सेवानिवृत्त नौकरशाह के हाथ में कैसे आए, ये पर्याप्त और संतोषजनक रूप से स्पष्ट नहीं किया गया है।
एसआईटी के पास पांडे के खिलाफ सबूत छिपाने की कार्रवाई करने की भी ठोस वजह थी, क्योंकि उसने सुप्रीम कोर्ट नियुक्त जांच के सामने पहले ये झूठ बोला था कि सारे रिकॉर्ड को नष्ट कर दिया गया था था।
एसआईटी की 2012 की अंतिम रिपोर्ट में भी इन पहलुओं पर कोई भी सवाल नहीं उठाया गया जो स्पष्ट रूप से बहुत ही असामान्य और संदिग्ध है। इनका उल्लेख “उन रिकॉर्ड्स की स्कैन प्रतियां के 3,000 पृष्ठों” किया गया, पर एसआईटी को उनकी प्रामाणिकता या पूर्णता के बारे में कुछ भी नहीं कहना है।
कुछ महीने बाद, जून 2011 में, गुजरात अटार्नी जनरल SB वकील ने नानावती आयोग को सूचित किया कि 2002 अवधि की पुलिस कॉल रिकॉर्ड को नष्ट कर दिया गया था ।[1]
सरकारी वकील SB वकील ने दंगों की जांच कर रहे नानावती पैनल को बताया कि दंगों से संबंधित कुछ रिकॉर्ड को नियमों के अनुसार नष्ट कर दिया गया था।
“सामान्य सरकार नियमों के अनुसार, टेलीफोन कॉल रिकॉर्ड, वाहन लॉगबुक और अधिकारियों की गतिविधि डायरी एक निश्चित अवधि के बाद नष्ट कर दिए जाते हैं” प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया समाचार एजेंसी के अनुसार श्री वकील ने कहा था ।
फिर से, नानावती आयोग द्वारा ना तो कोई स्पष्टीकरण मांगी गयी, और ना ही इन महत्वपूर्ण रिकॉर्ड के विनाश के लिए कोई कार्रवाई की सिफारिश की गयी है।
कहा जाता है कि “सबूत के अभाव, अभाव का सबूत” नहीं होता है । लेकिन क्या सबूत की तबाही, इरादे नेक नहीं होने, और संभवतः गुनाह का एक सबूत नहीं है?