राम मंदिर
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भाजपा के सत्ता हासिल करने का खेलराम मंदिर का वादा देकर हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का लाभ उठाने पर आधारित था, जिसके परिणामस्वरूप ध्रुवीकरण, घृणा और कट्टरता में हुई वृद्धि का भाजपा को सीधे लाभ मिला।
सत्ता हासिल कर लेने के बाद, अब यह अपने संघ परिवार सहयोगियों के माध्यम से इस मुद्दे को मनचाहे तौर से “ऑन” और “ऑफ” करवाते रहते हैं ।
संघ परिवार का विवाद में शामिल होना
1949 में जब मूर्तियों को बाबरी मस्जिद साइट पर रखा गया, उसके बाद से स्थानीय हिंदू और मुस्लिम समूहों के बीच कानूनी विवाद एक लंबे समय के लिए चल रहा था। इस मामले के बावजूद अयोध्या में सांप्रदायिक सद्भाव बरक़रार था।
1984 में, संघ परिवार इस विवाद में कूद गया।
7-8 अप्रैल 1984 के दौरान, विहिप के अशोक सिंघल ने दिल्ली के विज्ञान भवन में एक धर्मसंसद को आयोजित किया। यहाँ, पहली बार हिंदू धर्म की रक्षा करने और बढ़ावा देने के लिए, राम मंदिर के निर्माण को एक उद्देश्य के रूप में सूचीबद्ध किया गया ।
संघ परिवार की राजनीतिक शाखा भाजपा ने भी पालमपुर में जून 1989 में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी सम्मेलन के दौरान, पालमपुर प्रस्ताव को स्वीकार किया । इसके साथ भाजपा ने औपचारिक रूप से हिन्दुत्व को अपनी राजनीतिक-वैचारिक सिद्धांत के रूप में अपनाया और बाबरी मस्जिद गिराने और अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर के निर्माण के उद्देश्य से राम जन्मभूमि आंदोलन में भाग लेने का फैसला किया।
भाजपा को भारी लाभ
राम मंदिर अभियान का राजनीतिक शोषण भाजपा के लिए बहुत ही फायदेमंद था। इसने भाजपा में 1991 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाने में मदद की, जो बाद में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंश के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ । लोकसभा में भाजपा की राजनीतिक किस्मत बहुत जबरजस्त तरीके से चमकी, बहुत ही कम समय में, भाजपा अपने 6% के स्तर पर स्थिर वोट शेयर (और 2 सीटें) से अपने आप को 20% वोट और 120 सीटों तक पहुंचाने में कामयाब हो गयी ।
देश को भारी नुकसान
हालांकि, यह अभियान सीधे व परोक्ष रूप से हजारों भारतीयों की मौतों के लिए जिम्मेदार था। देश ने 80 और 90 के दशक के दौरान सांप्रदायिक दंगों के सबसे विभत्स मामले देखे, जिन्हें सीधे सीधे अयोध्या विवाद से जोड़ा जा सकता है 1। नीचे कुछ प्रमुख हिंसक घटनाओं की सूची है, प्रत्येक के लिए ब्रैकेट(कोष्ठक) में सरकारी आंकड़ों की अनुमानित मौतों की संख्या भी दर्शाई गयी है।
- 1987 मेरठ दंगे, और हाशिमपुरा नरसंहार (~ 400)
- 1988 मुजफ्फरनगर दंगे (100)
- 1989 भागलपुर दंगे (~ 1000)
- 1990 देश भर में दंगे (~ 350)
- 1992 बाबरी मस्जिद विनाश के बाद पूरे देश में दंगे (~ 1000)
- 1993 बंबई दंगे , जनवरी (800)
- 1993 के बंबई बम विस्फोट (250)
श्री आडवाणी की गुजरात में सोमनाथ से अयोध्या के लिए राम रथ यात्रा ने अपने रास्ते – कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, दिल्ली और बिहार के माध्यम से उत्तर प्रदेश में -सांप्रदायिक दंगों का कहर पीछे छोड़ दिया। इस परिवर्तित टोयोटा वैन को उस समय में इण्डिया टुडे पत्रिका द्वारा एक “आग का रथ’ करार दिया था।
इस यात्रा ने दंगों से भी बदतर, देश को और अधिक स्थायी नुकसान पहुंचाया ।इसने भारत की शब्दावली को बदल दिया और हिंदुओं की धार्मिक कट्टरता को कोठरी से बाहर ले आया। मध्यम और उच्च वर्ग के बड़े वर्गों के काफी लोगों ने आडवाणी की छद्म धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक-तुष्टीकरण, जैसे शब्दावली को अपना लिया । मुसलमानों के विरुद्ध पूर्वाग्रहों को, जिन्हें पहले खुल कर बोलना आक्रामक और अशिष्ट माना जाता था, और लोग निजी बातचीत में सीमित रूप में बोलते थे, अब स्वतंत्र रूप से खुले में बोले जाने लगे। सबको साथ लेकर आम सहमति बनाने की नेहरूवादी शिष्टाचार के दायरे टूट गए, और भारत की प्रसिद्ध सहिष्णुता की कमजोरी उजागर हो गयी । विविधता का सम्मान, जिसे एक साझी सभ्यताओं का भाग माना जाता था और ‘विविधता में एकता’ जैसे विचारों के के रूप में व्यक्त किया जाता था, को अब अक्सर चुनौती दी जा रही थी और हराया भी जा रहा था।[2]
धार्मिक भावनाओं का यह बेशर्म इस्तेमाल देश के कानून की खुले -आम अवहेलना करते हुए किया गया था । अपने भाषण में आडवाणी ने कहा करते थे:
“अदालत हमें रोकने वाली कौन होती है? हमें कोई भी नहीं रोक सकता। मंदिर वहीं बनाएंगे”
फ़र्ज़ी राष्ट्रवादी भाजपा के लिए स्वार्थी चुनावी लाभ के अलावा, इस सब की किसी को कोई ज़रुरत नहीं थी । हमारा समाज पहले से ही विभाजन समय के आसपास एक ऐसी ही पागलपन के दौर से गुजर था, और हमारे नेताओं ने बहुत सूझ बूझ से देश को एक लंबे समय के लिए इस सांप्रदायिक कैंसर से दूर रखा था ।
लिब्रहान आयोग
1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद, संघ परिवार की विभिन्न संस्थाओं ने अलग-अलग आवाज़ में बोलना शुरू कर दिया । जबकि विहिप और बजरंग दल इसे एक गर्व की बात मान रहे थे,और आज भी इसे “शौर्य दिवस” के रूप में मनाते हैं, भाजपा और आरएसएस ने खुद को घटना से दूर करने की कोशिश की।
आरएसएस ने हमेशा दावा किया है कि विध्वंस एक स्वतःप्रवर्तित और स्वाभाविक कृत्य था। न्यायमूर्ति लिब्रहान ने कहा कि विध्वंस पूर्व नियोजित था।
“तैयारी को अभूतपूर्व गोपनीयता, निरंतरता के साथ तकनीकी रूप से परफेक्ट तरीके के साथ पूरा किया गया, और इसका परिणाम मिलना तय था … उद्देश्य राजनैतिक शक्ति थी। इसने युवा पुरुषों के समूहों को छुपे हुए एजेंडे का समर्थन करने के लिए आकर्षित किया। नेता जानते हैं भावनाएं कैसे पैदा की जा सकती हैं, और कैसे ये होने से रोका जा सकता है; लेकिन वे हमेशा देखते हैं उन्हें क्या फायदेमंद होगा, ना कि देश के लिए क्या अच्छा होगा । यही अयोध्या में भी हुआ है.”
आयोग ने ये घोषणा भी की कि
“अयोध्या में मंदिर निर्माण आंदोलन के लिए पूरा दोष या श्रेय के लिए सिर्फ संघ परिवार को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए”।
इसने संघ परिवार को एक “व्यापक और बड़े पैमाने पर जैविक शरीर के रूप में” चित्रित किया । यह भी कहा कि
“भाजपा आरएसएस एक उपांग था और आज भी है, जिसका उद्देश्य केवल संघ परिवार के उग्र सदस्यों के कम लोकप्रिय निर्णय लिए एक स्वीकार्य मुखावरण उपलब्ध कराने का रहता है”
लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट, (उदाहरण. अध्याय 5 पृष्ठ 292 52.3) न्यायमूर्ति लिब्रहान की टिप्पणी थी की कल्याण सिंह के अंतर्गत भाजपा राज्य प्रशासन ने
“ईमानदार दृष्टिकोण के एक पूर्ण अभाव दिखाया” और “पूरी तरह से मिलीभगत की और विवादित ढांचे के विध्वंस बढ़ावा दिया “।
“मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल वो अंदरूनी तत्व थे जो पूरे सिस्टम के पतन का कारण बने.”
संदर्भ
- यह यात्रा अपने जाग में हिंसा का एक निशान छोड़ दिया है कि
- हिंदुत्व की ओर भारत की यात्रा
- दंगे भारत में 1986-2011 की सूची
- बाबरी मस्जिद के विध्वंस के साथ गलत क्या है?
- लिब्रहान अयोध्या जांच आयोग की रिपोर्ट
- अयोध्या DeQoded
- कैसे भाजपा, आरएसएस कारसेवक जुटाए
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